मुकाबले से बाहर होती कांग्रेस, भाजपा का बढ़ता जनाधार

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अरूण जेटली 

वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी को पूर्ण बहुमत मिला और एनडीए अपार जनादेश के साथ सत्ता में आया। ये चौंकाने वाला नतीजा था। इससे भी ज्यादा चौंकाने वाली बात यह थी कांग्रेस पार्लियामेंट में सिर्फ 44 सीटों पर सिमट कर रह गई।

बहरहाल, मई 2014 के बाद कई राज्यों में विधानसभा और स्थानीय निकाय के चुनाव हो चुके हैं। इन सारे चुनावों में बीजेपी के वोट प्रतिशत में इजाफा हुआ है। महाराष्ट्र, हरियाणा और असम में इसने खासी सफलता हासिल की। अब तक इन राज्यों में वह क्षेत्रीय पार्टियों की जूनियर सहयोगी की भूमिका निभाती रही थी। अब ओडिशा और महाराष्ट्र के स्थानीय निकायों के चुनाव नतीजों ने दिखा दिया है भाजपा ज्यादातर राज्यों में अपने दम पर चुनाव जीतने की क्षमता रखती है। इन चुनावों का पहला संदेश यही है कि भाजपा अब एक अखिल भारतीय पार्टी बन चुकी है और इसकी जड़ें पूर्वी ओर दक्षिणी राज्यों में भी तेजी से फैल रही हैं। कर्नाटक में होने वाले अगले विधानसभा चुनाव में भी भाजपा मजबूत होकर उभरेगी।

लेकिन कांग्रेस का क्या हाल है? ओडिशा में इसका कद इतना घट गया है वह मुकाबले से बाहर है। महाराष्ट्र के कई शहरों में यह तीसरे या चौथे स्थान पर खिसक आई है। तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश जैसे कई प्रमुख राज्यों में तो यह मुख्य मुकाबले में ही नहीं है। इन राज्यों में यह छोटे खिलाड़ी के तौर पर अपना अस्तित्व बचाने के लिए गठबंधन की कोशिश में लगी है। सपा के अंदर भी कई लोग यही सोच रहे हैं कि क्या कांग्रेस में इतना दम है कि उसके लिए यूपी में 103 विधानसभा सीटें छोड़ी जाएं।

क्या कांग्रेस अपने अंदर झांक कर इस हालात पर गौर करेगी? मतदाताओं ने इसे सत्ता से तो बेदखल किया ही है अब वह इसे मुख्य विपक्षी दल की भूमिका नहीं देना चाहते, लेकिन सत्ता से बाहर रह कर भी कांग्रेस सच्चाई को स्वीकार नहीं करना चाहती। संसद में कांग्रेस का जो रवैया है उससे उसकी छवि मुख्यधारा की पार्टी की बजाय छुटभैया पार्टी की बनती जा रही है। यह खुद को शासन करने की क्षमता रखने वाली स्वाभाविक पार्टी के तौर पर पेश करने में नाकाम रही है। इसे सुधार और विकास विरोधी पार्टी के तौर पर देखा जा रहा है। 2004 से लेकर 2014 तक के इसके शासन में लगातार बड़े स्कैंडल सामने आते रहे।

नोटबंदी पर कांग्रेस का रवैया उस पर काफी भारी पड़ रहा है। टैक्स की चोरी से देश की आबादी का एक छोटा हिस्सा गलत तरीके से अमीर होता जा रहा है और सरकारी खजाने को चोट पहुंचा रहा है। इससे सार्वजनिक संसाधन में कमी आ रही है और जनता के एक बड़े वर्ग पर किए जाने वाले खर्च में कटौती करनी पड़ रही है। देश के गरीब लोगों ने नोटबंदी का बढ़-चढ़ कर समर्थन किया है। कांग्रेस गरीब मतदाताओं के एक बड़े वर्ग को खो चुकी है। ये मतदाता अब भाजपा के पाले में हैं। किसी भी स्थिति में देश पर लगभग पचास साल तक शासन करने वाली पार्टी नकदी के अधिक इस्तेमाल और डिजिटल ट्रांजेक्शन के नए टेक्नलॉजी-टूल्स को स्वीकार करने से कैसे इनकार कर सकती है। कांग्रेस को अपने इस रुख का घाटा उठाना पड़ा है। कांग्रेस एक जिम्मेदार राजनीतिक संगठन की अपनी छवि खो चुकी है। इसकी नीतियों ने इसे आम गरीब आदमी से दूर कर दिया है। जो पार्टी मेरिट पर आधारित नेतृत्व के बजाय वंशवादी राजनीति के वारिसों को आगे बढ़ाती है उसका पतन स्वाभाविक है। ऐसी पार्टी में कद्दावर नेता नहीं हो सकते। पार्टी की ताकत वंशवादी राजनीति के वारिस के करिश्मे के नीचे दब जती है। अगर इस तरह की राजनीति के प्रतिनिधि में पार्टी या देश को आगे बढ़ाने की काबिलियत न हो तो उसे नुकसान पहुंचना स्वाभाविक है। यह डूबते वंशवाद के इर्द-गिर्द सिर्फ एक भीड़ के तौर पर रह जाती है। कांग्रेस के मामले में यही होता दिखता है।

(लेखक केंद्रीय वित्त मंत्री है)   (अमर उजाला से साभार)