आपातकाल का एक शर्मनाक अध्याय

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जयप्रकाश नारायण ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर अफसोस जताते हुए कहा कि अब नागरिक आजादी की अंतिम उम्मीद भी खत्म हो गई।

आपातकाल के बाद उपजे बेहद बुरे हालात के लिए संसद का आचरण भी जिम्मेदार था। स्थिति यह थी कि इंदिरा गांधी और उनके बेटे के डर से कांग्रेसी सांसदों ने संविधान में शर्मनाक ढंग से संशोधन करने के लिए होड़ लगा दी थी। इन संशोधनों का मकसद सिर्फ इंदिरा को चुनाव में भ्रष्टाचार के मामले से बच निकलने में मदद पहुंचाना था। कांग्रेस दोनों सदनों में ऐसा करने में इसलिए सफल हो गई थी, क्योंकि एक तो इंदिरा सरकार ने बड़ी संख्या में विपक्षी सांसदों को नजरबंद करवा दिया था और दूसरे उसे भाकपा का भरपूर साथ मिला। सच तो यह है कि भाकपा ने इंदिरा की तानाशाही का दिल खोलकर समर्थन किया।

संविधान के 38वें संशोधन के जरिये अदालतों को आपातकाल के फैसले की समीक्षा से वंचित किया गया। इस असाधारण संशोधन ने सुप्रीम कोर्ट को प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के खिलाफ चुनाव संबंधी याचिका पर सुनावाई से रोक दिया। इसमें कहा गया था कि ऐसी याचिकाओं पर सुनवाई के लिए संसद एक निकाय गठित करेगी। इसके अतिरिक्त चुनाव संबंधी सभी कानूनों को संविधान की नौंवी अनुसूची में डाल दिया गया। इसको पारित कराने के साथ घोषित किया गया कि अब कोर्ट में चल रही चुनाव संबंधी सभी याचिकाएं खत्म मानी जाएंगी।

फिर इंदिरा गांधी के खिलाफ जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा द्वारा उठाए गए बिंदुओं को प्रभावहीन करने के लिए पारित किए गए चुनाव कानून संशोधन एक्ट में कहा गया कि यदि कोई व्यक्ति चुनाव में धांधली का दोषी पाया जाता है तो उसे अयोग्य ठहराने का फैसला अदालत नहीं, बल्कि राष्ट्रपति करेंगे। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के खिलाफ जिन आरोपों को सही ठहराया था, उसमें से एक यह भी था कि उन्होंने चुनाव अभियान में एक सरकारी कर्मचारी की सहायता ली थी। इसे निष्प्रभावी करने के लिए कानून में जो संशोधन किया गया उसके अनुसार यदि ड्यूटी के दौरान एक सरकारी अधिकारी चुनाव में उम्मीदवार की मदद करता है तो उसे प्रत्याशी की सहायता करना नहीं समझा जाएगा।

आपातकाल के दौरान संसद का सिर्फ एक ही काम रह गया था और वह था इंदिरा गांधी को बचाने के लिए किसी भी तरह के कानून का निर्माण करना। इसके लिए जहां तक हो संभव हो सका वहां तक संविधान को तोड़ा-मरोड़ा गया। 39वें, 40वें संविधान संशोधन के बाद 41वां संविधान संशोधन बिल पेश किया गया। इसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव संबंधी याचिका की सुनवाई से दो दिन पहले नौ अगस्त, 1975 को राज्यसभा में पेश किया गया। इसके जरिये अनुच्छेद 361 को संशोधित कर यह कहा गया कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या राज्यपाल के पद पर वर्तमान में या पूर्व में बैठ चुके किसी व्यक्ति द्वारा पद पर रहते हुए या उसके पहले किए गए किसी कार्य के खिलाफ अदालत में आपराधिक या दीवानी मामले नहीं चलाए जा सकेंगे।

यह असाधारण संशोधन उसी दिन राज्यसभा द्वारा पारित हो गया। क्या किसी भी लोकतांत्रिक देश के संविधान में इस तरह का प्रावधान रहना चाहिए जो कुछ नागरिकों को कानून से ऊपर रख दे? इस प्रावधान ने संविधान की जड़ों पर गहरा घात किया, क्योंकि कानून के समक्ष बराबरी और सभी कानूनों का समान क्षमता से प्रयोग हमारे लोकतांत्रिक संविधान की मूल भावना है। हालांकि राज्यसभा ने वह संशोधन बिना किसी बाधा के पारित कर दिया, लेकिन सौभाग्यवश कुछ सोच-विचार के बाद बिल को अपने पास रख लिया। आपातकाल के दौरान जितने भी संविधान संशोधन किए गए उसमें सबसे व्यापक 42वां संशोधन था। उसका मुख्य उद्देश्य न्यायपालिका के पर कतरना था।

उस संशोधन में कहा गया कि किसी आधार पर किसी भी अदालत में संविधान के किसी भी संशोधन पर सवाल नहीं उठाया जा सकता। इतना ही नहीं संसद और विधानसभाओं में कानून बनाने के लिए जरूरी न्यूनतम दस प्रतिशत जन प्रतिनिधियों की अनिवार्य मौजूदगी की व्यवस्था भी खत्म कर दी गई। इसका अर्थ था कि एकमात्र सांसद भी समूचे देश के लिए कानून बना सकता था। न्यायपालिका की ओर से अक्सर यह कहा जाता है कि कानून से ऊपर कोई नहीं है। एक लोकतांत्रिक देश में यही सबसे जरूरी चीज भी होती है, लेकिन क्या हमारे न्यायाधीश उस इंदिरा सरकार से सामना करने के दौरान इस पर अटल रहे जिसने संविधान को अपाहिज कर दिया था ?

नौकरशाही और संसद की तरह ही हमारी न्यायपालिका ने भी हथियार डाल दिए थे। सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा गांधी की याचिका पर 11 अगस्त, 1975 से सुनवाई आरंभ की और कुछ ही महीने बाद सात नवंबर को फैसला दिया। उसने 39वें संविधान संशोधन और इंदिरा के चुनाव को पिछली तारीखों से वैध घोषित कर दिया। इसके बाद बंदी प्रत्यक्षीकरण का मामला या। मधु दंडवते और लालकृष्ण आडवाणी जैसे कई बंदियों ने हाईकोर्ट में राष्ट्रपति की आपातकाल संबंधी उद्घोषण को चुनौती दी और अपने मौलिक अधिकारों का दावा पेश किया। तब ढेरों नेता मीसा और ऐसे ही अन्य कठोर कानूनों के तहत गिरफ्तार कर लिए गए थे। परिणामस्वरूप उच्च न्यायालयों में इन अवैध गिरफ्तारियों के खिलाफ याचिकाओं की बाढ़ गई थी।

सरकार के विधि अधिकारी का तर्क था कि उच्च न्यायालय इन याचिकाओं की सुनवाई नहीं कर सकते, क्योंकि नागरिकों के पास अब अनुच्छेद 14, 21 और 22 के तहत अपने मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए कोर्ट से गुहार लगाने का अधिकार नहीं रह गया है। एक तर्क यह भी दिया गया कि 27 जून, 1975 को राष्ट्रपति की उद्घोषणा के बाद से ही अनुच्छेद 14 (विधि के समक्ष समानता), अनुच्छेद 21 (प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण) और अनुच्छेद 22 (कुछ दशाओं में गिरफ्तारी से संरक्षण) के तहत मिले मौलिक अधिकार निरस्त हो गए हैं। हालांकि कई उच्च न्यायालयों को सरकार के इस तर्क दम नजर नहीं या और उन्होंने नजरबंदी के देश निरस्त कर दिए, लेकिन जब मामला सुप्रीम कोर्ट में या तो कई जजों ने सरकार के तर्क को स्वीकार लिया।

जयप्रकाश नारायण ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर अफसोस जताते हुए कहा कि अब नागरिक आजादी की अंतिम उम्मीद भी खत्म हो गई। इंदिरा की तानाशाही व्यक्तिगत और संस्थागत, दोनों रूपों में सफल हो गई। आपातकाल के दौरान 111000 से ज्यादा लोगों को नजरबंद किया गया था। 25 जून, 1975 की रात भारतीय लोकतंत्र का गला घोंटने की भरपूर कोशिश हुई थी, लेकिन देश की जनता को नमन कि उसने इंदिरा के प्रयासों को विफल कर दिया। चूंकि मीडिया का मुंह बंद कर दिया गया था लिहाजा इंदिरा गांधी के पास जनता का मूड भांपने का कोई विश्वसनीय स्रोत नहीं बचा था।

अपने चापलूसों की बातों में कर उन्होंने मार्च 1977 में चुनाव कराने का देश दिया। उन्हें उम्मीद थी कि संसद में उनकी वापसी होगी और वह अपनी तानाशाही जारी रखेंगी, लेकिन वह अपने मंसूबों में कामयाब नहीं हो सकीं। जनता ने कांग्रेस को बाहर का रास्ता दिखा दिया और जेल में बने बेतरतीब गठबंधन के हाथों देश की बागडोर सौंप दी। लोगों में आपातकाल की ज्यादतियों को लेकर कांग्रेस के खिलाफ ऐसा गुस्सा था कि उत्तर और मध्य भारत की 300 लोकसभा सीटों में से पार्टी सिर्फ दो सीटें ही जीत पाई थी।

(लेखक (ए सूर्यप्रकाश – सीईओ प्रसार भारती) की शीघ्र प्रकाशित पुस्तक-द इमर्जेसी : इंडियन डेमोक्रेसीज डार्केस्ट ऑवर का एक अंश, साभार – दैनिक जागरण)