पत्र-पत्रिकाओं से…

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उच्च शिक्षा की नई उड़ान

उच्च शिक्षा के क्षेत्र में गुणवत्ता के साथ संस्थानों की आत्मनिर्भरता बढ़ाने की दिशा में सरकार का यह बड़ा फैसला है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने जेएनयू, बीएचयू, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, यूनिवर्सिटी ऑफ हैदराबाद समेत देश के 62 उच्च शिक्षण संस्थानों को स्वायत्त घोषित कर दिया है। इन संस्थानों को अपने फैसले लेने के लिए अब यूजीसी पर निर्भर नहीं रहना होगा। ये अब खुदमुख्तार होंगे। सरकार का दावा तो यही है कि इन संस्थानों की शैक्षिक गुणवत्ता और इसे बनाए रखने में इनकी निरंतरता को देखते हुए यह फैसला लिया गया है। माना गया है कि ये संस्थान अपने बूते अपनी दिशा खुद तय कर सकते हैं और स्वाभाविक रूप से ऐसे में उन्हें अपना खर्च भी खुद उठाने में सक्षम बना दिया जाना चाहिए। यानी नए फैसले के बाद ये अपनी दाखिला प्रक्रिया, फीस संरचना और पाठ्यक्रम भी खुद ही तय कर सकेंगे। एक झटके में मान भी लिया जाए कि शैक्षिक उदारवाद का यह प्रयोग शिक्षा के क्षेत्र में बड़ा बदलाव लाने वाला होगा, लेकिन यह सब करते वक्त यह भी तो सुनिश्चित करना ही होगा कि वाकई यह कदम रचनात्मक बदलाव लाने वाला ही साबित हो।
– (हिन्दुस्तान, 23 मार्च, 2018)

मोदी सरकार ने पुराने और अप्रासंगिक हो चुके कानूनों को खत्म करके दी आमजन को राहत

ह अच्छी बात है कि पुराने और अप्रासंगिक हो चुके कानूनों को खत्म करने की पहल के तहत केंद्र सरकार कुछ और ऐसे ही कानूनों को समाप्त करने की तैयारी में है। मोदी सरकार ने कुल 1824 ऐसे कानून चिन्हित किए थे जो पुराने और अप्रासंगिक हो चुके थे। इनमें से अब तक 1657 को खत्म किया जा चुका है। चूंकि अब अनुपयोगी कानूनों की संख्या 167 ही रह गई है इसलिए यह उम्मीद की जाती है कि अगले एक वर्ष में उनसे भी मुक्ति मिल जाएगी और इस तरह सरकार अपने एक अन्य एजेंडे को पूरा कर लेगी। नि:संदेह इसके बाद सरकार इसे अपनी एक उपलब्धि बता सकती है, लेकिन बेहतर होगा कि वह आम जनता को इससे भी परिचित कराए कि अभी तक पुराने कानूनों को खत्म करने से शासन-प्रशासन को गति देने अथवा लोगों की समस्याओं का समाधान करने में कितनी मदद मिली है? जिन कानूनों की प्रासंगिकता समाप्त हो चुकी है उन्हें तो खत्म होना ही चाहिए, लेकिन इसी के साथ उन कानूनों को दुरुस्त करने का भी काम किया जाना चाहिए जो समस्याओं का समाधान करने में सहायक बनने के बजाय उन्हें उलझाने का काम करते हैैं।
– (दैनिक जागरण, 26 मार्च,2018)

ईवीएम विरोध का राग

ससे निराशाजनक और कुछ नहीं हो सकता कि जब देश की सबसे पुरानी सियासी पार्टी कांग्रेस से यह उम्मीद की जा रही थी कि वह अपने अधिवेशन के जरिए पार्टी और साथ ही देश को कोई राह दिखाने या फिर उत्साहित करने का काम करेगी, तब उसके नेताओं की ओर से घिसी-पिटी बातों पर ही ज्यादा जोर दिया गया। इस क्रम में सबसे हैरानी इस पर रही कि राजनीतिक प्रस्ताव के जरिए इलेक्ट्रॅानिक वोटिंग मशीन अर्थात ईवीएम पर हमला बोला गया। कांग्रेस ने ईवीएम पर निशाना साधते हुए जिस तरह मत पत्र के जरिए मतदान कराने की मांग की, उससे उसने अपनी संकुचित सोच का ही परिचय दिया।
ईवीएम पर सवाल उठाना एक गैरजरूरी मसले को तूल देने के अलावा और कुछ नहीं। यह केवल जनता को गुमराह करने के मकसद से किया जा रहा है, क्योंकि बहुत दिन नहीं हुए जब गुजरात विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेसी नेताओं ने ही ईवीएम पर भरोसा जताया था। आखिर अचानक ऐसा क्या हो गया? क्या ईवीएम इसलिए अविश्वसनीय हो गई कि गोरखपुर और फूलपुर में कांग्रेस की जमानत जब्त हो गई? क्या कांग्रेस ने यह मान लिया है कि उसका चुनावी भविष्य उज्ज्वल नहीं और इसीलिए वह उस ईवीएम को खलनायक बनाने पर आमादा है जिसका चलन खुद उसके समय में शुरू हुआ था? अगर ईवीएम भरोसेमंद नहीं थी तो वह 2004 में सत्ता में कैसे आई? सवाल यह भी है कि अगर उसे ईवीएम में खोट दिख रही थी तो उसने दस साल के अपने शासन के दौरान मत पत्र से चुनाव क्यों नहीं कराए?
– (नई दुनिया, 19 मार्च, 2018)