सुधरती सत्ता, बिखरता विपक्ष

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प्रभात झा

लोकतंत्र रूपी रथ के दो पहिए होते हैं- एक सत्ता पक्ष, दूसरा विपक्ष। विपक्ष, सत्ता पर नियंत्रण के लिए होता है और विपक्ष का कमजोर होना सत्ता के बेलगाम होने की आशंका को जन्म देता है। आजादी के बाद भारत में सत्ता की दुर्दशा तो लोगों ने देखी थी विपक्ष की नहीं। आज तो देश का विपक्ष दुर्दशा के मुहाने पर खड़ा है। आजादी के बाद कुछ वर्षों को छोड़ दें तो कांग्रेस येन-केन-प्रकारेण केंद्र और राज्य की सत्ता में सदैव बनी रही।

इस दौरान ऐसा कभी नहीं हुआ कि विपक्ष बिखर गया हो। वर्ष 1975 का दौर याद करें। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगाकर कांग्रेस के नेताओं को छोड़ सभी नेताओं को अकारण जेल में ठूंस दिया था। ऐसे समय में भी जेल में विपक्षी एकता का जन्म हुआ और जनता पार्टी का गठन हुआ। वर्ष 1977 के आम चुनाव में इस विपक्षी एकता से न केवल इंदिरा गांधी की सत्ता गई, बल्कि कांग्रेस बहुत छोटी संख्या पर आकर टिक गई। लोकतंत्र में जितना अधिकार सत्ता पक्ष का होता है उतना ही विपक्ष का भी होता है।

मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, राम मनोहर लोहिया, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, चंद्रशेखर, श्रीपद अमृत डांगे, ज्योति बसु, हिरेन मुखर्जी और इंद्रजीत गुप्त सरीखे नेता विपक्ष के नेता के रूप में ही स्थापित हुए। ये कम संख्या के बावजूद सत्ता पक्ष पर नैतिक नियंत्रण रखते थे। संसद के भीतर एक बार बहस के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी से कहा था ‘हम आपकी विचारधारा को कुचल देंगे।Ó तब जनसंघ के अध्यक्ष डॉ. मुखर्जी ने जवाब में कहा था कि ‘हम उस मानसिकता को कुचल देंगे जो हमारी विचारधारा को कुचलना चाहता है।Ó नेहरू इस जवाब से हतप्रभ रह गए थे।

आज से 15-20 साल पहले सदन के भीतर सत्ता पक्ष और विपक्ष के नेताओं के भाषण उनकी मर्यादा में चार चंाद लगाते थे। चिंता की बात यह है कि आज ऐसा नहीं हो रहा। पहले सत्ता देश के लिए काम करती थी, वहीं विपक्ष भी देश के लिए सदन में आवाज बुलंद करता था। आज के हालात बदले हैं। केंद्र में जो सत्ता में हैं वह रोज संभल कर चल रही है और विपक्ष रोज बिखरकर कमजोर होता जा रहा है। सारे विपक्षी दल अपने ही दल के प्रमुख लोगों के आरोपों के नीचे दब गए हैं। देश में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस की यह हालत हो गई है कि गत तीन वर्षों में जितने भी चुनाव हुए अधिकांश जगह पराजित हो गई।

एक-एक कर अनेक राज्यों में उसे सत्ता से हाथ धोना पड़ा। इतना ही नहीं तीन साल पहले हुए आम चुनाव में लोकसभा में उसके मात्र 44 सदस्य जीतकर आए। उसकी हालत यह हो गई कि वह मान्यता प्राप्त विपक्षी दल के रूप में भी नहीं रही। सब जानते हैं कि कांग्रेस में सोनिया गांधी और राहुल गांधी की जगह कोई दूसरा नेतृत्व होता तो कब का ही हटा दिया जाता। आज किसी से भी पूछो कि सोनिया जी के बाद कौन, तो हर कोई कांग्रेस में राहुल गांधी का ही नाम लेगा। कमोबेश यही स्थिति अन्य विपक्षी दलों की भी है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी हो या बिहार में राजद। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस हो या ओडिशा में बीजू जनता दल।

यहां तक कि पंजाब और महाराष्ट्र के दल और दिल्ली की राज्य सत्ता से जुड़े लोग अपनी ही पार्टी के नेताओं की मार से घायल हो रहे हैं। परिवारवाद की भेंट चढ़ रहा विपक्ष न तो देश का भला कर पा रहा है और न ही अपने दल का। परिवार और पार्टी में जमीन आसमान का अंतर होता है। पार्टी देश के लिए काम करती है और परिवार में मात्र परिवार के लिए काम होता है। राजनीति में में नेताओं के प्रतिभावान और दल से जुड़े बच्चे या उनके परिवार के अन्य सदस्य नहीं आएं ऐसा कोई नहीं चाहेगा।

लेकिन दिक्कत तब होती है जब बिहार में लालू प्रसाद यादव जेल जाते हैं तो अपनी पार्टी के विधायकों में से किसी पर विश्वास न करते हुए अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बना जाते हैं। दूसरी ओर उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव, मुख्यमंत्री का पद अखिलेश यादव को सिर्फ इसलिए सौंप देते हैं कि वह उनका पुत्र है। इतना ही नहीं बसपा, सपा, एनसीपी, राजद, बीजद सहित अनेक दल ऐसे हैं, जिनमें कार्यकर्ताओं का महत्व शून्य नजर आता है। जब विपक्षी दलों की हालत ऐसी हो वह भला केन्द्र में नरेंद्र मोदी की नैतिकता आधारित सरकार पर कैसे प्रहार कर सकते हैं? हमें देखना होगा कि पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र होता है यही यदि परिवार आधारित हो जाएं तो अंतर्कलह बढ़ते देर नहीं लगती।

कम्युनिस्ट पार्टियों को छोड़कर आज लगभग सभी विपक्षी पार्टियां अतर्कलह की कगार पर हैं। पहले विपक्ष आगाह करता था तो सत्ता पक्ष चेत जाया करता थी। आज विपक्षी दिन भर सदन में हल्ला करते हैं फिर भी जनता उनके साथ न सड़क पर खड़ी है न संसद में। ऐसे में लोकतंत्र में आत्मावलोकन सभी दलों को करते रहना चाहिए। ये स्वस्थ लोकतंत्र के लिए बहुत आवश्यक है। नैतिक रूप से कमजोर विपक्ष कैसे बलवान हो सकता है। इस सवाल का जवाब तो विपक्षियों को ही तलाशना होगा। अन्यथा परिवारवाद के आगोश में लिपटे ये विपक्षी ‘दल-दल में फंसे रहेंगे।

(लेखक भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं सांसद हैं)