राष्ट्र का अर्थ

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दूसरा और अंतिम भाग…

ज लोग देश को एक राजनीतिक स्वरूप में देखते हैं और एक राज्य को ही एक देश कहते हैं। यदि एक राज्य के दो राज्य बन गए तो दो देश हो गए, जैसे भारत और पाकिस्तान। अंग्रेज के ‘कंट्री’ शब्द का राजनीतिक इकाई के साथ समीकरण करके रख दिया है। यह दोनों एक मान लिए गए हैं। यह ठीक है कि एक देश में एक ही राज्य हो। यह एक आदर्श है, किंतु यह आदर्श प्राप्त नहीं हुआ, तब भी एक राज्य को देश कह देना गलत है।
यह तर्कहीनता है। यह सोचना ही गलत है कि एक राज्य को पहले एक देश मान लिया जाए और फिर कहा जाए कि उसके रहनेवाले एक राष्ट्र हैं। यदि उनमें राष्ट्र को बनानेवाली चीज़ें नहीं हैं तो बनाई जानी चाहिए। पर यह उलटी रीति से सोचने का ढंग है। वास्तव में सोचना इस प्रकार से चाहिए कि एक देश में एक राष्ट्र होता है। एक देश में दो राष्ट्र नहीं हो सकते। दूसरा होगा तो या तो वह उस देश पर शासन करनेवाला, गुलाम बनानेवाला होगा या फिर शरणार्थी होगा। जैसे एक घर में दो स्वामी, एक जंगल में दो शेर, एक म्यान में दो तलवारें नहीं हो सकतीं, उसी प्रकार एक देश में दो राष्ट्र नहीं हो सकते। अत: प्रयत्न यह हो कि एक देश या राष्ट्र में एक ही राज्य हो।
पर कभी-कभी ऐसा होता है, जब आदर्श प्राप्त नहीं होता है। उस समय जो कुछ मिलता है, उसी को ठीक समझकर चलने लगते हैं। जैसे कोई कर्मचारी सोचता है कि मैं घूस नहीं लूंगा, पर कभी आगे चलकर फिसल जाता है और घूस ले लेता है, तो घूस लेने को ही न्यायोचित ठहराने लगता है। अंग्रेज़ी कवि गोल्डस्मिथ ने कहा है, सभी कुछ यहां दुनिया की राजनीति के कारण हुआ।
सीधी तरह विचार करने पर ज्ञात होता है कि राष्ट्र मानवों के उस समूह को कहते हैं, जो एक देश में निवास करता है। देश की राजनीतिक सीमाएं शक्ति के अनुसार घट-बढ़ सकती हैं। कुछ वर्ष पूर्व पाकिस्तान हमारे देश की राजनीतिक सीमा के अंतर्गत था, काफी पहले अफगानिस्तान भी था। अभिप्राय यह कि राजनीतिक सीमाएं घट-बढ़ सकती हैं। फिर यदि राजनीतिक सीमाएं नहीं, तो राष्ट्र की या देश की दूसरी सीमाएं कौन-सी हैं?
राष्ट्र के लिए देश में निवास करना ही पर्याप्त नहीं है। निवास करनेवाले तो अनेक हो सकते हैं, जैसे अंग्रेज भी यहां निवास करते हैं। किंतु राष्ट्र उन लोगों से बनता है, जो एक भूमि में निवास करते हैं, और उस भूमि को अपनी समझते हैं, निवास न भी करते हों, तो भी उसे अपनी समझते हों। ‘अपने’ का भी भाव माता और पुत्र का सा होना चाहिए। यों तो अंग्रेज़ भी हिंदुस्तान को अपना समझते थे, पर वे अपने को इसका स्वामी समझते थे। किंतु हम अपने को इस भूमि का पुत्र कहते हैं और माता के नाते स्वीकार करते हैं।
हमने राष्ट्र को अपनी माता के रूप में माना है। अत: जिस भूभाग के संबंध में हमारा मातृभाव है, वह हमारा देश है, चाहे फिर वह राजनीतिक दृष्टि से घट-बढ़ गया हो। अत: राष्ट्र उन मानवों का समूह है, जो किसी भूखंड के प्रति मातृभाव लेकर चलता है। यह हमारी मां है, इसकी गोद में आकर बैठेंगे, गौरव और स्वतंत्रता के साथ बैठेंगे। यदि आज किसी कारण से उस गोद में बैठने से वंचित हो गए तो ध्रुव के समान तपस्या की भावना लेकर बैठने की इच्छा से चलेंगे। यह कल्पना, यह भावना, जिस मानव समूह में हो, वह एक राष्ट्र है।
एक बात और भी है। किसी भी भूखंड के प्रति भाव मानव-समूह लेकर चले तो प्रश्न हो सकता है कि अलग-अलग टुकड़ों के बारे में यह भाव हो जाए, जैसे राजस्थान, बंगाल आदि। किंतु इसके आगे भी एक चीज़ होती है। यह मातृभावना लेकर चलनेवाला मानव समाज एक अन्य भाव से भी जुड़ा होता है, वह है संस्कृति। संस्कृति के कारण ही उस भूखंड के प्रति मातृभावना प्रकट होती है।
सामान्य रूप से समझने के लिए यह संस्कृति राष्ट्र की आत्मा है। पर आत्मा के स्थान पर संस्कृति से भी आगे की एक चीज़ है। संस्कृति तो शरीर है। वैसे व्याकरण के अनुसार ‘मनुष्य’ व्यक्तिवाचक संज्ञा है। रामप्रसाद एक व्यक्ति है। अब रामप्रसाद व्यक्तिवाचक एकवचन है। पर रामप्रसाद क्या है? यह एक बड़ी समस्या है। बच्चों के छूने के खेल के समान मानो रामप्रसाद एक व्यक्ति से कहता है, मुझे छुओ, बच्चों ने उसके हाथ को छुआ। तो रामप्रसाद कहां है? रामप्रसाद नाम है तो नाम तो उससे जुड़ गया है। दूसरा नाम रख दें, उसके स्थान पर तो वह दूसरा नाम हो जाएगा। यह शरीर भी रामप्रसाद नहीं।
इसके आगे भी कोई चीज़ है, वह है उसका व्यक्तित्व। मरने के बाद हम मनुष्य के शरीर का स्मरण नहीं करते, उसके व्यक्तित्व का, गुणों का, कर्मों का वर्णन करते हैं। उसके कर्मों से, गुणों से व्यक्तित्व बनता है। पर वह असलियत नहीं, आत्मा नहीं। आत्मा तो निर्लेप है। आत्मा व्यक्तित्व से अलग है। जब मनुष्य पैदा हुआ तो कर्म लेकर या व्यक्तित्व लेकर नहीं पैदा हुआ। व्यक्तित्व तो पैदा किया जाता है। जन्म लेने के बाद बड़े होने पर कर्म करते-करते गुणों से मिलकर व्यक्तित्व बनता है। पर आत्मा तो मूल में होती है। वह इससे भी आगे की वस्तु है, जो आगे विकसित होती है।
राष्ट्र एक सजीव इकाई है, निर्जीव इकाई नहीं। राष्ट्र में जीवन है, व्यक्ति के समान चैतन्य है। अपने यहां प्राचीन काल में भी यही मानते थे। आज के मनोवैज्ञानिक भी इसे समझने लगे हैं। जैसे व्यक्तित्व का एक भाग मस्तिष्क सब में है, कुत्ते में भी और पेड़-पौधों में भी। ऐसे प्रयोग किए गए हैं, जिनसे सिद्ध हुआ है कि संगीत से पेड़-पौधे भी बड़े होते हैं और उनमें अच्छे फल आते हैं। इस प्रकार सुख-दु:ख और आनंद का अनुभव वनस्पति को भी होता है।
यह सोचने की ताकत सब में होती है, ऐसे ही समूह-मस्तिष्क (ग्रुप माइंड) भी होता है। जिस प्रकार हर व्यक्ति का अपना सोचने का अलग ढंग होता है, उसी प्रकार समूह का भी अपना एक अलग व्यक्तित्व होता है। समूह की यह जो अलग सत्ता होती है, उसमें भी जीवमान सत्ता है। तभी वह प्रेरणा देती है। क्योंकि जीवमान वस्तु ही प्रेरणा देती है। मोटर चलती है, पर जीवनमान नहीं, अत: वह प्रेरणा नहीं दे सकती। जीवनमान वस्तु में स्वत: ही इच्छाशक्ति, स्वत: की चेतना, कर्मशक्ति तथा सत्ता की भावनाओं का समुच्च्चय होता है। इसी प्रकार राष्ट्र का एक जीवमान समुच्चय होता है। इसीलिए राष्ट्र पैदा होते हैं, बनाए नहीं जाते। जैसे व्यक्ति या कोई भी जीव मात्र उत्पन्न होता है, बनाया नहीं जाता, वैसे ही राष्ट्र बनाया नहीं जाता, उत्पन्न होता है, बढ़ता है और नष्ट भी जीवनमान वस्तु के समान होता है।
अब प्रश्न उठता है कि राष्ट्र का चैतन्य क्या है? उसके लिए संस्कृत का एक शब्द है, वह कठिन है। वह है, ‘चिति’। उसे हम राष्ट्र की आत्मा कह सकते हैं। एक ‘चिति’ को लेकर एक राष्ट्र पैदा होता है। उसके लिए मनुष्य अनेक प्रकार के कर्म करते हैं और कर्मों से मनुष्य का व्यक्तित्व बनता है। उससे व्यक्ति के अच्छे कर्म होते हैं। अच्छे कर्म वे होते हैं, जो व्यक्ति को उदात्त बनाते हैं, जिससे उसका विकास होता है। ‘चिति’ अर्थात् आत्मा का साक्षात्कार करनेवाले अच्छे कर्म और जो ऐसे नहीं हैं, वे बुरे कर्म। इसी प्रकार, राष्ट्र की उन्नति जिससे होती है, वह है उसकी संस्कृति। जो कर्म राष्ट्र को ‘चिति’ का साक्षात्कार कराते हैं, वे संस्कृति हैं। जो बुरे कर्म हैं, वे विकृति हैं। राम व कृष्ण के कर्म संस्कृति हैं। रावण व दुर्योधन के नहीं।
राम और कृष्ण विजयी हुए, इसी कारण उनके कर्मों को ठीक मानते हैं, ऐसी बात नहीं है। उगते सूर्य को ही नमस्कार करते हैं, ऐसा नहीं है। पृथ्वीराज, पद्मिनी और प्रताप को भी हम बड़ा कहते हैं। इसमें हमारे जीवन की एक दृष्टि है जो हमारी ‘चिति’ से बनती है। उसके अनुकूल जो कार्य होते हैं, उनसे हमारी संस्कृति बनती है।
इस प्रकार राष्ट्र बनता है। जिस प्रकार एक मनुष्य की आत्मा होती है, वह कर्म करता है, अच्छे कर्मों को पुण्य के नाते जोड़ता है, बुरे कर्मों को हटाने का प्रयत्न करता है। यद्यपि बुरे कर्मों का भी दुष्परिणाम तो भुगतना ही पड़ता है, पर प्रेरणा अच्छे कर्मों से ही लेता है। इसी प्रकार मनुष्यत के व्यक्तित्व के समान राष्ट्र का एक व्यक्तित्व बनता है। राष्ट्र एक जीवमान इकाई है, जो अपनी आत्मा या ‘चिति’ को लेकर पैदा होती है। उसका ‘चिति’ के अनुसार साक्षात्कार करानेवाली सभी कृतियां संस्कृति हैं। यह संस्कृति पैदा होती है, बढ़ती है। उस आधार पर यह राष्ट्रि खड़ा होता है। मातृभाव की भूमि पर खड़ा रहता है, कर्म करता है, भौतिक जीवन के व्यवहार में समृद्धि लाता है, मकान आदि बनते हैं, राज्य निर्मित होते हैं। समाज व्यवस्थाएं बनती हैं। यह सब सभ्यता है। जिस प्रकार मनुष्य कोई चित्र बनाता है तो उसके अंदर की जो भावना है, उसके अनुकूल वह चित्र बनाता है, इसी प्रकार राष्ट्र के अंदर की वस्तु संस्कृति-सभ्यता के रूप में प्रकट होती है।
इसी प्रकार इन संबंधों के आधार पर एक इतिहास का निर्माण होता है। जब राष्ट्रों का परस्पर संबंध आता है, तो संघर्ष होते हैं। विजय होती है, पराजय भी होती है। जिस-जिस ने इसकी संस्कृति को बढ़ाया, पोषण के नाते खड़े हुए, वे महापुरुष बनकर खड़े हो जाते हैं। इस प्रकार एक मानव समाज होता है, एक देश, एक संस्कृति, एक सभ्यता, एक इतिहास होते हैं तो वह राष्ट्र हो जाता है। उस समाज के महापुरुष एक होते हैं। उनके आदर्श-आकांक्षाएं एक हो जाती हैं। उनके भूत, वर्तमान और भविष्य एक हो जाते हैं। यदि एक नहीं हों तो समझना चाहिए कि कहीं गड़बड़ है। यह एक वैज्ञानिक दृष्टि से विचार है। दुनिया में अन्यत्र भी जहां तार्किक दृष्टि से विचार हुआ है, यही निष्कर्ष निकला है।

(संघ शिक्षा वर्ग, बौद्धिक वर्ग, अजमेर; मई 28, 1963)