राष्ट्र निर्माता डॉ. भीमराव अम्बेडकर

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अंबेडकर जयंती  (14 अप्रैल)

डॉ0 भीमराव अम्बेडकर का जीवन राष्ट्र और दीन-हीनों की सेवा के लिए समर्थित था। उनके सामने जहां एक तरफ करोड़ों दुःखी-पीड़ित लोगों के अधिकारों की रक्षा का प्रश्न था, वहीं दूसरी ओर राष्ट्र हित का सतत संवर्धन भी था। डॉ. अम्बेडकर का व्यक्तित्व सिर्फ दलितों तक ही सीमित नहीं था, बल्कि उनका योगदान समूचे भारत के लिए था। वे पूरे भारत के नेता थे। उन्होंने सभी वर्ग के लोगों के हित में काम किया।

अपनी माता-पिता की चौदहवीं संतान के रूप में जन्मे डाॅ. भीमराव अम्बेडकर (14 अप्रैल 1891-06 दिसंबर 1956) जन्मजात प्रतिभा संपन्न थे। बीए की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करने के पश्चात आर्थिक कारणों से वह सेना में भर्ती हो गए। उन्हें लेफ्टिनेंट के पद पर बड़ौदा में तैनाती मिली। अपने मित्र कैलुस्कर की प्रेरणा और महाराजा बड़ौदा की आर्थिक मदद से भीमराव उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका गए। वहां के कोलंबिया विश्वविद्यालय में प्रवेश लेकर उन्होंने अपनी अध्ययनशीलता का परिचय दिया। 1917 में डॉ. अम्बेडकर भारत लौटे और देश सेवा के महायज्ञ में अपनी आहुति डालनी शुरू की। महाराजा कोल्हापुर के सहयोग से उन्होंने मराठी में ‘मूक नायक’ नामक पाक्षिक पत्र निकालना शुरू किया। वह ‘बहिष्कृत भारत’ नामक पाक्षिक तथा ‘जनता’ नामक साप्ताहिक के प्रकाशन तथा संपादन से भी जुड़े।

उन्होंने विचारोत्तेजक लेख लिखकर लोगों को जगाने का प्रयास किया। डॉ. अम्बेडकर स्वतंत्र भारत के पहले कानून मंत्री रहे। उन्होंने रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया का गठन किया। उन्होंने देश के दलित वर्ग को मुखर होने की ताकत दी। ‘संविधान प्रारूप समिति’ के अध्यक्ष के रूप में वह भारतीय संविधान के निर्माता बने। मार्च 1952 मे उन्हें संसद के ऊपरी सदन यानी राज्य सभा के लिए नियुक्त किया गया और वे मृत्यु तक इस सदन के सदस्य रहे। 6 दिसंबर 1956 को डॉ. अम्बेडकर की मृत्यु हो गई। कृतज्ञ राष्ट्र ने उन्हे मरणोपरांत ‘भारत रत्न’के अलंकरण से सम्मानित किया।

राष्ट्रहित सर्वोपरि

डाॅ. अम्बेडकर की दृष्टि में राष्ट्रहित सर्वोपरि था। इसलिये वे मुस्लिम विघटनकारी शक्तियों से सहमत नहीं थे। उनका मानना था कि उनमें हिन्दुओं के साथ सह-अस्तित्व की बुनियादी भावना का अभाव है। इसके बिना देश की उन्नति असंभव है, इसी परिप्रेक्ष्य में सन् 1940 में उन्होंने मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की मांग पर अपने जो विचार व्यक्त किये हैं, वे पठनीय हैं। डा. साहब ने वैज्ञानिक तथा ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर अंग्रेजों के इस दुष्प्रचार का खण्डन किया कि आर्य इस देश में बाहर से आए थे, तथा वर्तमान के शूद्र लोग आर्य नहीं हैं। उन्होंने यह बात आग्रहपूर्वक कही कि आर्य कोई वंश नहीं है तथा आर्य कहीं बाहर से नहीं आए। उन्होंने यह सुस्थापित किया कि शूद्र भी आर्य हैं। इस प्रकार आर्यों के बाहर से आने वाले सिद्धांत को उन्होंने मनगढ़ंत और निराधार बताया।

बाबा साहब का जीवन इस बात का उदाहरण है कि व्यक्ति का दृढ़ निश्चय ही उसका निर्माण करता है, उसकी जाति, पारिवारिक निर्धनता, असुविधायें और समाज का विरोध उसकी प्रगति को रोक नहीं सकता। बाबा साहब का संपूर्ण जीवन युवकों के लिये प्रेरणा का स्रोत है। उन्होंने देश की युवा शक्ति से परिश्रमी तथा गुण संपन्न बनने का आहवान किया। बाबा साहब कहते हैं- ‘सम्मान की आकांक्षा करना कोई पाप नहीं है, परंतु कार्य करते-करते सम्मान प्राप्त नहीं होता है, तो निराश होकर आप संघर्ष मत छोड़िये। यदि दुर्भाग्य से आप उस सम्मान से वंचित कर दिये जाये जिसके वास्तविक अधिकारी आप है फिर भी आप धैर्य न छोड़ें।’

डॉ. अम्बेडकर की सामाजिक और राजनैतिक सुधारों का आधुनिक भारत पर गहरा प्रभाव पड़ा। स्वतंत्रता के बाद भारत में उनकी सामाजिक और राजनीतिक सोच का सारे राजनीतिक हलकों में काफी सम्मान हासिल हुआ। उनकी इस पहल ने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में आज के भारत की सोच को प्रभावित किया। उनकी यह सोच आज की सामाजिक, आर्थिक नीतियों, शिक्षा, कानून और सकारात्मक कार्रवाई के माध्यम से प्रदर्शित होती है। संविधान निर्माण के महान राष्ट्रीय कार्य में डाॅ. भीमराव अम्बेडकर का योगदान अतुलनीय है। डॉ. अम्बेडकर को स्वतंत्र भारत के नए संविधान की रचना कि लिए बनी संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया। मसौदा तैयार करते समय डॉ. अम्बेडकर ने अपनी विद्वता और कार्य निष्ठा के चलते अपने सहयोगियों और समकालीन प्रेक्षकों की काफी प्रशंसा अर्जित की।

26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा ने संविधान को अपना लिया। अपने काम को पूरा करने के बाद डॉ. अम्बेडकर ने कहा, ‘मैं महसूस करता हूं कि संविधान, साध्य (काम करने लायक) है, यह लचीला है पर साथ ही यह इतना मजबूत भी है कि देश को शांति और युद्ध दोनों के समय जोड़ कर रख सके। वास्तव में, मैं कह सकता हूँ कि अगर कभी कुछ गलत हुआ तो इसका कारण यह नही होगा कि हमारा संविधान खराब था, बल्कि इसका उपयोग करने वाला मनुष्य अधम था।’

24 सितम्बर 1932 को गाँधी से पूना संधि करके डॉ. अम्बेडकर ने राष्ट्र की एकता को और मजबूत किया। 24 सितम्बर 1932 को सर तेज बहादुर सप्रू ने गांधी और डॉ. अम्बेडकर से मिलकर एक समझौता तैयार किया जिसमें डॉ. अम्बेडकर को पृथक निर्वाचन की मांग को वापस लेना था और गाँधी जी के दलितों को केन्द्रीय और राज्यों की विधान सभाओं एवं स्थानीय संस्थाओं में दलितों की जनसंख्या के अनुसार प्रतिनिधित्व देना एवं सरकारी नौकरियों में भी प्रतिनिधित्व देना था। इसके अलावा शैक्षिक संस्थाओं में दलितों को विशेष सुविधाएं देना भी था। दोनों नेता इस समझौते पर सहमत हो गये। 24 सितम्बर 1932 को इस समझौते पर गाँधी जी और डॉ. अम्बेडकर ने तथा इनके सभी समर्थकों ने अपने हस्ताक्षर कर दिए। इस समझौते को ‘पूना पैक्ट’ कहा गया। पूना पैक्ट में ही दलितों के लिए आरक्षण की व्यवस्था उनके उन्नति की आधारशिला बनी।