हमारा हित

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पं. दीनदयाल उपाध्याय

गतांक से…

म कम्युनिस्टों और समाजवादियों की तरह समाज में वर्गों को स्वीकार करते हैं, पर इनकी तरह परस्पर वर्गों में मतभेद को स्वीकार नहीं करते। समाज में जो वर्ग विद्यमान हैं, वह कार्य की व्यवस्था या Division of Works के कारण है, ऐसा अपना वर्गों के प्रति दृष्टिकोण है। स्कूल में कई classes होती हैं। ये classes शिक्षा की समुचित व्यवस्था के लिए बनाए गए हैं। यदि कोई कहे classes का यह classification संघर्ष के कारण है तो हमें यह मानना पड़ेगा कि एक ही समाज में रहनेवाले वकील और डॉक्टर के बीच भी संघर्ष है। माता, पुत्र, पति-पत्नी, मालिक और मज़दूर के बीच में संघर्ष है। क्या यह सत्य है? मालिक और मज़दूर का स्वार्थ मिलने पर ही कोई कारखाना खड़ा होता है। किसी एक के स्वार्थ पर कारखाना खड़ा नहीं हो सकता। इसलिए मजदूर का interest और मालिक का interest अलग-अलग नहीं है। इस तरह मालिक और मज़दूर के बीच मतभेद को स्वीकार करना उचित नहीं। पश्चिम के लोग व्यक्ति और समाज में मतभेद स्वीकार करते हैं। राज्य व्यक्ति को गुलाम बना सकता है। पर पश्चिम के लोगों का यह कहना सरासर गलत है कि समाज व्यक्ति को गुलाम बनाता है। उसी तरह व्यक्ति और समाज में भी संघर्ष नहीं है। व्यक्ति का हित ही समाज का हित है। पेड़ और फूल में संघर्ष कहां है? पेड़ तो चाहता है, उसे फूल आए.. फल आए। पेड़, फल और फूल में संघर्ष नहीं है। क्या फल और फूल समझते हैं कि पेड़ हमें गुलाम बना रहा है? इसके साथ ही साथ क्या पेड़ यह सोचता है कि मैं फल और फूल को गुलाम बना रहा हूं? पेड़ का जीवन लक्ष्य ही है कि उसे फूल और फल आएं, उसी में उसके जीवन की सार्थकता है।

व्यक्ति और समाज एक है। व्यक्ति द्वारा समाज फलता और फूलता है, व्यक्ति समाज से हटकर अपना विकास नहीं कर सकता, इस तरह व्यक्ति और समाज का विकास परस्परावलंबित है

इसी तरह किसी का यह समझना समाज व्यक्ति को गुलाम बनाता है, भ्रामक और मिथ्या है। इसी तरह मां के जीवन का लक्ष्य बेटा सुखी और पढ़ा-लिखा हो, यही है। मां-बेटे के बीच संघर्ष नहीं रहा। मां यदि बच्चे को पढ़ने के लिए कहती है और कभी डांटती भी होगी तो वह मां-बेटे के बीच संघर्ष समझना, साथ ही साथ पुत्र का यह समझना कि मां मुझे गुलाम बना रही है, यह धारणा ग़लत है। बेटे को भी यह प्रतिकूल विचार नहीं आता, यदि इसे मां-बेटे के बीच स्थायी संघर्ष समझे। तो यह पश्चिम की देन है, जो सरासर ग़लत है।

व्यक्ति और समाज एक है। व्यक्ति द्वारा समाज फलता और फूलता है, व्यक्ति समाज से हटकर अपना विकास नहीं कर सकता, इस तरह व्यक्ति और समाज का विकास परस्परावलंबित है। हमारे बालों का सर के साथ घनिष्ठ संबंध है। बालों को काटकर उसे सुरक्षित स्थान पर रखकर रोटी-पानी दीजिए, वे ख़राब हो जाएंगे पर बढ़ेंगे नहीं। लेकिन जब वे शरीर के साथ रहेंगे, तभी उनका विकास होगा। इसी तरह व्यक्ति को समाज से हटकर विचार नहीं करना चाहिए। जब केवल व्यक्तिगत स्वार्थ का विचार होगा, पर समाज और राष्ट्र का नहीं तो व्यक्तिगत स्वार्थ भी पूरा नहीं हो सकता। यदि कोई केवल मुझे नौकरी कैसे मिलेगी, इसका विचार करेगा, पर राष्ट्र का नहीं, तो काम नहीं चलेगा। यदि कोई फल की अपेक्षा करे और पेड़ की ओर दुर्लक्ष करे तो फल प्राप्त नहीं होगा। उसी तरह दूध की अपेक्षाकर गाय के पोषण का दुर्लक्ष होगा तो न दूध ही मिलेगा न गाय ही जीवित रहेगी। इसी प्रकार राष्ट्र समाज का चिंतन छोड़ केवल व्यक्ति अपना ही विचार करे तो न उसका विकास होगा, न समाज और राष्ट्र ही संवर्धित होगा।

समाज में उसी वर्ग के साथ लड़ाई या संघर्ष होगा, जो समाज में भेद उत्पन्न करने का प्रयत्न करेगा। समाज में भेद उत्पन्न करना, यही विकृति होगी और वहां संघर्ष अटल है। हमारा संपूर्ण शरीर उसके भिन्न-भिन्न अवयव, भिन्न-भिन्न कार्य में संलग्न हैं, कार्य व्यवस्था का आदर्श नमूना है। विभिन्न अवयवों में जिनके कार्य एक दूसरे से अलग हैं, पर उनमें अपने कार्य के प्रति मतभेद दिखाई देता है क्या? यदि दाएं हाथ ने बाएं हाथ की चिंता छोड़ दी, उसी तरह शरीर का प्रत्येक अवयव एक-दूसरे से असंगत व्यवहार करेगा, तो शरीर का कार्य नहीं चल सकता। जब हाथ अपना काम, पैर अपना काम करे, तभी सभी कार्य समुचित रूप से चलेंगे। अवयवों में काम की भिन्नता व्यवस्था का अंग है। इस अलग-अलग कार्य को कोई संघर्ष या भेद कैसे कह सकता है?

कार्य का बंटवारा (division of labour) विकसित जीवन का लक्ष्य है। सभी कार्य एक के द्वारा ही पूर्ण नहीं हो सकते, इसीलिए कार्य को उचित ढंग से पूर्ण करने के लिए विभिन्न वर्गों में बांटना कार्य की सफलता और उसकी निपुणता के लिए आवश्यक है। यदि इसी प्रकार के कार्य विभाजन से वर्गभेद उत्पन्न होगा तो वह ग़लत है। कार्य जैसे-जैसे बढ़ता जाएगा, कार्य विभाजन भी बढ़ता जाएगा। हम जो खाते हैं, वह शरीर में पहुंचकर भिन्न-भिन्न रूप धारण करता है। यही भोजन मांस, खून, मज्जा, हड्डी, वीर्य बनता है। यदि किसी ने कहा कि मैं तो खाना खाता हूं, यह हड्डियां कैसे बनीं, यह तो अलग कार्य कर रहा है, यह तो विभेद है तो इस तरह की समझ भ्रममूलक है। वास्तव में भोजन द्वारा बने खून, हड्डी व वीर्य में विभेद न होकर विविधता है। विकृति उसे कहेंगे जब भोजन पेट में पहुंचकर खून बनने के बजाय उससे रक्त विरेचन हो रहा होगा। यह विकृति शरीर के लिए प्रतिकूल है, उसी तरह समाज की इस विविधता को विभेद मानकर चलेंगे तो वह विकृति है, जो समाज जीवन के प्रतिकूल है।

शरीर में दिखाई देनेवाली यह विभिन्नता विभेद के कारण न होकर व्यवस्था के कारण है, तभी एक ही शरीर पर आंखों का कार्य देखने का है, मुंह का कार्य बोलने का है, पैरों का कार्य चलने का है, यह विविधता जो वस्तुतः व्यवस्था है, शरीर के लिए आवश्यक है। उसी तरह हम जब भोजन करते हैं तो उसका खून बनना जरूरी है, कारण यह शरीर का शक्ति संस्थान है, इसी रक्त से शरीर के भिन्न-भिन्न अवयव अपने कार्य के लिए शक्ति प्राप्त करते हैं। यदि यही भोजन रक्त न होकर फोड़ा बनेगा तो यह विकृति होगी, जो शरीर के लिए घातक सिद्ध होगी। जैसे शरीर के भिन्न-भिन्न अवयव हैं। एक ही रक्त से शक्ति प्राप्त कर कोई देखने का कार्य करता है तो कोई बोलने का, इसी तरह समाज-यह एक और उसकी शक्ति भी एक और उसके घटक अपने-अपने बल सामर्थ्य के अनुसार अलग-अलग कार्य करेंगे। जैसे कोई व्यापार करेगा, कोई कारखाना चलाएगा, कोई नौकरी करेगा पर कार्य की इस विभिन्नता के कारण संपूर्ण समाज को विभिन्न वर्गों में विघटित करेंगे तो यह भारी भूल होगी।

यह भूल समाज में विकृति उत्पन्न करेगी, जिसके कारण सारा समाज बिगड़ जाएगा। इसलिए व्यक्ति को चाहिए कि वह जब कभी विचार करे, तब अपने को समाज व राष्ट्र से पृथक् रखकर न करे। यदि कोई राष्ट्र और समाज का विचार छोड़ केवल व्यक्तिगत विचार करेगा तो उसका विकास संभव नहीं है। समाज की समुचित कार्य व्यवस्था के लिए उपरोक्त विभाजन किया गया है। जो इस व्यवस्था को वर्ग मानकर उनमें संघर्ष है, समझकर चलते हैं। वास्तव में उन्होंने समाज को समझने का प्रयत्न नहीं किया। हमारा समाज जीवन विविध रूप में प्रकट हुआ है, विविधता से घबराने की आवश्यकता नहीं है। विविधता समाज की आवश्यकता की पूर्ति करती है।
समाप्त
-संघ शिक्षा वर्ग, बौद्धिक वर्ग : आंध्र प्रदेश, 16 मई, 1965