परम सुख का मार्ग

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– दीनदयाल उपाध्याय

नुष्य की सभी क्रियाओं का उद्देश्य एक ही है—आनंद अथवा सुख की प्राप्ति। वैसे तो संपूर्ण सृष्टि ही आनंदमय है। प्रत्येक प्राणी वही कार्य करता है, जो उसके लिए सुखकारक है। प्राणी ही क्यों, जड़ पदार्थों में भी जितना कुछ होता है, वह सभी आनंद प्राप्ति के लिए है। संपूर्ण चराचर सृष्टि में एक ही आनंद का नाम गुंजित हो रहा है। साधारण जीवधारी अन्य प्राणी भी सुख के लिए ही क्रियाएं करते हैं। कुत्ते को डंडा दिखाया तो वह भागता है और रोटी दिखाई तो वह समीप आता है। एक समय भागने और दूसरे समय समीप आने की यह क्रिया उसकी सुख कामना ही है। तब मनुष्य तो विकसित प्राणी है। इसलिए इस संबंध में कोई विशेष तर्क देने की आवश्यकता नहीं है कि मनुष्य की समस्त क्रियाओं का उद्देश्य सुख प्राप्ति ही है।

विचारणीय प्रश्न है कि सुख क्या है? इस संबंध में मनोविज्ञान शास्त्र के विद्वानों ने एक प्रयोग किया। एक ऐसी परखनली के एक रास्ते के छोर पर एक कीड़ा रख दिया। शेष बचे दो रास्तों में से बाईं ओर से रास्ते पर बिजली का करंट जोड़ दिया। यह कीड़ा आगे बढ़कर जब बाईं ओर जाता था तो उसे बिजली के प्रवाह का धक्का लगता था। वह वापस आता था। बार-बार उस कीड़े ने बिजली का धक्का खाया और दाहिनी ओर के रास्ते पर मुड़ा। दस-बारह बार ऐसा होने पर उस कीड़े ने बाईं ओर के रास्ते पर जाना ही बंद कर दिया। जब परखनली के एक रास्ते के छोर पर उसे छोड़ा जाता, तो वह सावधानी से बाईं ओर का रास्ता छोड़कर दाहिनी ओर आगे बढ़ता। वैज्ञानिकों ने इस पर से निष्कर्ष निकाला कि अनुकूल वेदना ही सुख है। सर्वसाधारण प्राणिमात्र की यही प्रकृति है, सुख की ओर बढ़ना और दुःख से दूर हटना है।

किंतु इस सुख की अनुभूतियों में भी बड़ा अंतर है। सुख की अनुभूतियां भिन्न-भिन्न प्रकार की होती हैं। मनुष्य को भोजन करने, पानी पीने, ठंड, गरमी, वर्षा से शरीर को बचाने, सुगंधित पुष्प की गंध लेने, रंग-बिरंगे दृश्यों का अवलोकन करने कितनी ही प्रकार की अनुभूतियां होती हैं। वह इनमें आनंद का अनुभव करता है। वे इंद्रियजन्य सुख हैं। इंद्रियों से इनका उपभोग किया जाता है। इन सुखों के संबंध में हमारे यहां कहा गया है कि ये मनुष्य तथा अन्य प्राणियों में समान ही होते हैं। आहार, निद्रा, भय, मैथुन आदि से जो अनुकूल वेदना होती है, उसे मनुष्य और पशु में समान पाया जानेवाला सुख कहा गया है।

मनुष्य और पशु में अंतर केवल यही है कि मनुष्य का कुछ-न-कुछ जीवन लक्ष्य होता है। पशु का लक्ष्य नहीं होता। लक्ष्य ही मनुष्य में मनुष्यत्व समझा जाता है। लक्ष्यहीन मनुष्य तो निरा पशु ही है। इस लक्ष्य के कारण ही मनुष्य की विशेषता है। इसलिए इंद्रिय तथा उनके विषयों के संयोग से प्राप्त सुख को मनुष्य के लिए राजस सुख माना गया है। यह इंद्रियजन्य सुख क्षणिक होता है। किंतु यह सुख भी कई बार फीका लगता है।

एक कम्युनिस्ट ने अपने एक मित्र से अत्यंत ही आग्रहपूर्वक कहा कि दुनिया में सबसे बड़ा सवाल रोटी का है। मित्र ने उससे पूछा कि क्या दुनिया का सबसे बड़ा सवाल यही मानते हो? उसने जब हां कहा तो मित्र बोला कि ठीक है, मैं इसे सुलझाऊंगा। कल से मेरे घर आना आपको रोज भरपेट स्वादिष्ट भोजन कराऊंगा। किंतु एक शर्त है कि रोज शाम को इसी स्थान पर खड़ा कर चार जूते भी लगाऊंगा।

कम्युनिस्ट सज्जन द्वारा इसका कारण पूछने पर मित्र ने कहा, इसमें आपका क्या बिगड़ता है? आपका सवाल रोटी का है। वह पूरा होना चाहिए। यह दूसरा सवाल मेरा है, इसे मुझ पर छोड़ दो। इस विनोद में भी बड़ा महत्त्वपूर्ण रहस्य छिपा है। रहस्य यह है कि सुख इंद्रियों तक ही सीमित नहीं है। इसका संबंध किसी अन्य वस्तु से भी है।

एक सज्जन नासिक जाकर तर्पण कर रहे थे। उनके एक मित्र भी साथ थे, जिनका तर्पण में विश्वास नहीं था। इसलिए उन्होंने मजाक करते हुए कहा कि यह क्या कर हो हो ? उक्त सज्जन ने कहा कि पितरों को पानी दे रहा हूं। मित्र ने पूछा, भला यहां दिया हुआ पानी उन्हें किस प्रकार मिलेगा? तो उक्त सज्जन ने इसका बिना कुछ उत्तर दिए मित्र के पिताजी को ज़ोर-ज़ोर से गाली देना शुरू कर दिया। इस पर मित्र भी बहुत क्रोधित हो उठा। वह बोला, यदि तुम्हें तर्क नहीं सूझता तो मुझे गाली दे दो, मेरे पिता को गाली देना मैं सहन नहीं कर सकता। तब उक्त सज्जन ने शांत भाव से कहा, “मित्र, तुम्हारे पिता तो घर पर हैं, यहां दी हुई गालियां उनके पास तक तो नहीं पहुंच सकतीं। तब व्यर्थ में क्यों उत्तेजित होकर चिंता करते हो?” इस प्रकार मित्र को प्रश्न का सही उत्तर मिल गया था कि यह सब मन को अच्छा लगने की बात है। भावना का प्रश्न है।

उद्धव चरित में कहा गया है, “उद्धव मन माने की बात।” गोपियों को उद्धव समझाने लगे तो गोपियों ने इनकार कर दिया। वे बोलीं कि भाई, यह अपने-अपने मन का प्रश्न है। हम निराकार निर्गुण की आराधना करके प्रसन्न नहीं हो सकतीं। हमें तो हमारा खेलने-कूदने, लीला करनेवाला कृष्ण ही चाहिए। इसलिए केवल इंद्रियजन्य सुख से काम नहीं चलता, मन का भी सुख ज़रूरी होता है। अन्यथा सामने थाली में रखा हुआ स्वादिष्ट भोजन भी विष के समान लगने लगता है और व्यक्ति उसे ठोकर मारकर उठ जाता है।

इसके साथ मनुष्य के पास बुद्धि भी है। वह चिंतन करता है। चिंतन का भी सुख है। अन्य प्राणियों के पास इतनी विकसित बुद्धि नहीं, जितनी मनुष्य के पास है। वह क्षणिक और शाश्वत सुख के भेद को समझना चाहता है। कौन सा सुख स्थायी एवं चिरंतन होगा, जो अधिक समय तक मिलता रहेगा और कौन सा सुख क्षणिक एवं परिणाम में महान् दुःखदायी होगा? इसका विचार मनुष्य कर लेना चाहता है। वह विवेक का प्रयोग करने लगता है। व्यक्ति सोचता है कि हीरा छोड़कर कांच का टुकड़ा क्यों ले? जिस मुख से अमृत चख लिया, उसमें करील के कड़वे फल क्यों डाले? इसलिए वह बुद्धि का भी सुख चाहता है।

जीवन लक्ष्य, जिसे अपनी बुद्धि द्वारा स्वयं स्वीकृत किया है, उसके सुख-दुःख की वेदनाओं का निकष बनता है। लक्ष्य की ओर बढ़ते समय मार्ग के कांटे भी उसे सुखकर लगते हैं। सत्य के लिए वह लाख कष्ट झेलने में आनंद का अनुभव करता है। अपनी मान्यताओं को स्थापित करने के लिए वह चाहे जिस वस्तु का त्याग कर सकता है। केवल मन का सुख उसे संतुष्ट नहीं कर पाता। मन तो चंचल है हजार प्रकार की बातों में रमते रहने का काम मन का है। इस मन को वश में कर एकाग्र करने से मनुष्य लक्ष्य की ओर बढ़ सकता है। इसलिए उसे बुद्धि का सुख भी अनुभव होता है। गोस्वामी तुलसीदासजी के संबंध में ऐसी ही एक शिक्षाप्रद कथा है। वे अपनी पत्नी को इतना अधिक चाहते थे कि उसके बिना रह नहीं सकते थे।

एक बार पत्नी अपने पिता के घर गई। मोह-अवस्था में व्याकुल होकर तुलसीदासजी भी भागे-भागे ससुराल पहुंच गए। कहा जाता है कि वर्षा के दिन थे, नदी उफन रही थी तो उसमें बहते हुए एक मुरदे को ही पकड़कर वे नदी पार हो गए। इधर ससुराल पहुंचने पर दरवाजे बंद थे तो खिड़की से लटकते हुए एक सांप को रस्सी मानकर पकड़ अंदर पहुंच गए। पत्नी को जगाया। पत्नी ने उन्हें धिक्कारा। बस, तब उनके मन के ऊपर छाया हुआ मोह छंट गया। बुद्धि ने प्रकाश पाया। सचमुच पत्नी के इन शब्दों में बड़ा सुख भरा हुआ दिखाई दिया कि हाड़-मांस के इस शरीर से इतना प्यार करते हो, वैसा ही यदि श्री रघुवीर के प्रति होता तो कल्याण हो जाता। वे इस सुख की ओर बढ़े और रामचरित मानस की रचना कर अपार आनंद को प्राप्त हुए।

तथापि बुद्धि का सुख भी अंतिम चिरानंद सुख नहीं है। बुद्धि से भी ऊपर आत्मा का सुख है। मां बच्चे को गोद में लेकर आत्मिक सुख का अनुभव करती है। यह आत्मा की विशालता का सुख है। इसके सामने अन्य सभी सुख तुच्छ हैं। भयमुक्त और स्वार्थमुक्त होने पर सिवाय आनंद के अन्य कुछ रह ही नहीं जाता। इसलिए व्यक्ति इसकी खोज में विशालता स्वीकार करता जाता है।

इस प्रकार शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा चारों प्रकार के सुख की प्राप्ति ही जीवन लक्ष्य है।
तथापि इस सुख की प्राप्ति कोई भी मानव अकेले नहीं कर सकता। स्वयं के परिश्रम से वह पूर्ण सुखी नहीं हो सकता। इसके लिए समाज के साथ उसके संबंधों का प्रश्न आ उपस्थित होता है। जैसे हम जो भोजन करते हैं, वह केवल हमारे परिश्रम का ही फल नहीं है। अनेक बंधुओं का उसमें सहयोग है। रोटी पकानेवाले रसोइए से लेकर, दुकानदार, मंडी के नौकर-चाकर और किसान तक कितने ही लोग हैं, जो हमारे सुख के लिए कारण बने हैं। इसी प्रकार हमारे प्रत्येक सुख में अनेक लोगों का हाथ है।

इतना ही क्यों, यदि समस्त सुखोपयोग के साधन हों और व्यक्ति अकेला हो, तो भी वह दुःखी हो उठता है। कभी-कभी बहुत साधन संपन्न लोगों के मुंह से निकली हुई यह आह सुनी होगी कि “भाई, सब कुछ है किंतु इसका क्या उपयोग? हृदय भारी रहता है कि कोई अपना हो तो इसका उपभोग करे।” इसलिए सुख के लिए परोपकार का बड़ा यश गाया है। आपस में एक-दूसरे के साथ समरस होना, काम आना, आत्मीय जनों को सुख पहुंचाने का यत्न करना ही परोपकार है। यही परस्परानुकूलता है। जब एक दूसरे सभी आपस में सबकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सचेत होते हैं तो आनंद नाच उठता है।

इसलिए सुख का आधार परस्परानुकूलता है, संघर्ष नहीं अपने-अपने मुख की कामना पर संघर्ष करने से ईर्ष्या पूर्ण प्रतिद्वंद्विता तैयार होती है। उसमें सुख का आभास भले ही निर्माण हो, तैयार होता है दुःख। इसीलिए कहा गया है कि सुख आत्मनिष्ठ हैं, वस्तुनिष्ठ नहीं। किसी वस्तु में सुख होता तो वस्तु पास में रहने तक सदैव सुख ही देती रहती। किंतु हम अनेक बार पाते हैं कि जो वस्तु सुखकर लगती थी, वही कुछ कारण से अब दुःख देने लगी है, इसलिए सुख आत्मनिष्ठ है, जिसका आधार परस्परानुकूलता है।

सृष्टि का भी सब व्यवहार इसी प्रकार आपस की पूरकता में से ही प्रकट होता है। समुद्र की भाप ऊपर उठकर बादल बनती है, बादल घुमड़-घुमड़कर बरस जाते हैं। नदियां उफनती हैं और फिर समुद्र में जा मिलती हैं। यही आनंद है। व्यष्टि, समष्टि, सृष्टि और परमेष्टि, ये चार तत्व हमारे सामने उपस्थित होते हैं, जो परस्पर सहकार्य से सुखदायी होते हैं। व्यक्ति समाज पर अवलंबित है, समाज सृष्टि पर निर्भर है और सृष्टि का संचालन परमेष्टी द्वारा हो रहा है। व्यक्ति उसे परमेष्टि की इच्छा की पूर्ति का साधन बनाने में धन्यता अनुभव करता है। जब तक इनमें परस्पर तालमेल बना है, सबकुछ ठीक चलता है।

यही यज्ञचक्र कहा गया है। भगवद्गीता में कहा गया है कि प्राणी अन्न से, अन्न पर्जन्य से, पर्जन्य यज्ञ से और यज्ञ ब्रह्मा से निर्मित हुए हैं। इस तरह का चक्र पूर्ण होता बताया गया है। यह अखंड चक्र ही सब सुखों की धारणा करता है। इसे ही हमने दूसरे शब्दों में धर्म नाम से जाना है। अर्थात् परस्पर कर्तव्य करने से धारणा रूप जो धर्म प्रकट होता है, वही सुख है।

व्यक्ति जीवन में इस सुख की प्राप्ति के लिए चार बातों की आवश्यकता है— शिक्षा, स्वतंत्रता, शांति और पौरुष।

जिस यज्ञचक्र का उल्लेख ऊपर किया गया है, उसे व्यवस्था के साथ और निष्ठापूर्वक संचालित बनाए रखने के लिए शिक्षा की जरूरत है। सब प्रकार की शिक्षा व्यक्ति को देने की व्यवस्था समाज में होनी चाहिए। किंतु यह तभी संभव है कि जब व्यक्ति तथा समाज का जीवन स्वतंत्र हो। मानसिक स्वतंत्रता ही नहीं, आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता भी जरूरी है। जाति चिति के अभियान प्रबल रहने से ही यह स्वतंत्रता रह सकती है। जहां स्वाभिमान नहीं, वहां स्वतंत्रता भी नहीं रह सकती। इनके लिए शक्ति और पौरुष की भी आवश्यकता है। इन चारों साधन चतुष्ट्य का निर्माण तथा संरक्षण करने के कार्य के लिए सक्षम सत्ताओं की रचना होती है। स्वतंत्रता रक्षण के लिए राज्य, शिक्षण के लिए गुरुकुल, अन्य सब प्रकार की शांति और पौरुष निर्माण के लिए समाज की चातुर्वर्ण्य व्यवस्था है।

प्रत्येक व्यक्ति को सक्षम बनाने के लिए चार आश्रम हैं। इस प्रकार चतुविध वर्णाश्रम के आधार पर, चतुर्विध साधनों के सहारे, चतुर्विध सिद्धांत को लेकर परमसुख की प्राप्ति का व्यावहारिक ढांचा खड़ा किया गया। ये सब साधन चिति से ही साध्य होते हैं। इसलिए राष्ट्र को चैतन्य प्रदान करना ही सब कार्यों की मूल प्रेरणा है। राष्ट्र का चैतन्य निर्माण होने से ये सब कार्य संपन्न होते हैं।

-राष्ट्र जीवन की दिशा (पुस्तक), 1971