अंधेरा छंटेगा, सूरज निकलेगा, कमल खिलेगा

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भाजपा के 44वें स्थापना दिवस पर विशेष

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                  मुंबई में आयोजित भाजपा राष्ट्रीय परिषद् में 28 दिसंबर, 1980 को
                 श्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा दिए गए अध्यक्षीय भाषण का अंतिम भाग―—

असम आंदोलन

असम जल रहा है। गत एक वर्ष से वहां आग लगी हुई है। बड़ी संख्या में विदेशी नागरिकों की घुसपैठ के कारण वहां के लोग अपने ही घर में पराए होते जा रहे हैं। घुसपैठ का सिलसिला दशकों से चल रहा है। मुझे याद है, 1957 में जब मैं पहली बार लोकसभा का सदस्य बना तो मैंने इस घुसपैठ की ओर सरकार का ध्यान खींचा था। मैंने यह चेतावनी भी दी थी कि यदि घुसपैठ को रोकने की कोई प्रभावी उपाय योजना नहीं की गई तो परिस्थिति विस्फोटक रूप धारण कर लेगी। किंतु सरकार ने समस्या की गंभीरता को नहीं पहचाना। असम में विदेशियों की समस्या का आकार मामूली नहीं है, जैसा बताने की कोशिश होती रही है। 1978 में जनता शासन के दौरान अकेले मंगलदोई लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र में 47,600 विदेशियों के नाम मतदाता सूची में पाए गए। 1957 से 1970 के बीच यहां मतदाता सूची में 12 लाख मतदाताओं की बढ़ोतरी हुई, जबकि 1970 से 1979 के बीच यहां 28 लाख नए मतदाताओं के नाम दर्ज हुए।

असम में विदेशियों की समस्या

केंद्रीय सरकार के पिछले 12 महीनों के बर्ताव ने असम की समस्या को ज्यादा जटिल बना दिया है। सरकार ने कभी इसे असमी बनाम गैर-असमी का रंग देने की कोशिश की तो कभी असमी और बंगालियों में टकराव कराने की नीति अपनाई। कभी सवाल को हिंदू बनाम मुसलमान का रूप देने का प्रयास किया, लेकिन असम में विदेशियों की समस्या को असली रूप में देखने से हमेशा इनकार करती रही।

असम सीमा प्रदेश है। यह भौगोलिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। सामरिक दृष्टि से भारत का सिंहद्वार है। प्राकृतिक दृष्टि से मनोहारी असम तेल, खनिज, वनसंपदा, जलस्रोतों और संस्कृति की दृष्टि से बड़ा संपन्न है। किंतु आज भी असम निर्धन है, निरादृत है, शोषित है, शापित है। असमी लोग अपने आर्थिक पिछड़ेपन के लिए केंद्र को दोषी मानते हैं। उन्हें यह भी शिकायत है कि उनकी भाषा तथा अन्य सांस्कृतिक विशेषताओं के प्रति अवहेलना का रवैया अपनाया गया है।

केंद्रीय सरकार और आंदोलनकारी नेताओं के बीच बातों के जो अनेक दौर हुए हैं, उनके फलस्वरूप मतभेद घटे हैं और अब गतिरोध इस बात पर है कि 1961 से 1971 के बीच आए विदेशियों का क्या किया जाए। सरकार उन्हें असम से बाहर बसाने के लिए तैयार नहीं है, जबकि आंदोलन के नेता सारा बोझ असम पर डालने को उचित नहीं मानते।

दोनों पक्षों को इस मामले में अपने कड़े रुख में थोड़ा परिवर्तन करना चाहिए। बीच का रास्ता यह हो सकता है कि 1961 से 1971 के बीच आए लोगों को पहचानने तथा मतदाता सूची में से उनके नाम काटने पर दोनों पक्ष सहमत हो जाएं। ऐसे लोगों को असम में ही रहने दिया जाए या अन्य प्रदेशों में बसाया जाए, इस सवाल का निर्णय नई मतदाता सूचियों के आधार पर निर्वाचित नई सरकार पर छोड़ दिया जाए।
असम सरकार का गठन एक संवैधानिक आवश्यकता को पूरा करने के लिए हुआ था, अब उसे बनाए रखने का कोई संवैधानिक, नैतिक या व्यावहारिक औचित्य नहीं है। उसे तुरंत बरखास्त कर देना चाहिए।

जनांदोलन को दबाना अनुचित

असम के जनांदोलन को गोली या गिरफ्तारी से नहीं दबाया जा सकता। जिस आंदोलन के साथ लगभग हर असमिया पुरुष, नारी तथा बच्चे की भावनाएं जुड़ी हैं, उसको केवल कानून तथा व्यवस्था के मामले के रूप में निबटाना आत्मघात होगा। दमन का रास्ता अमन का रास्ता नहीं हो सकता।

विदेशी घुसपैठ को बढ़ावा

असम की वर्तमान स्थिति के लिए वे राजनीतिक नेता दोषी हैं, जिन्होंने स्वार्थसिद्धि के लिए न केवल विदेशी घुसपैठ को अनदेखा किया, अपितु उसे बढ़ावा देने का अपराध भी किया। असम की आत्मा में पहले से ही बहुत से घाव लगे हैं। शेष भारत अपनी उदासीनता और केंद्रीय नेतृत्व अपनी अदूरदर्शिता से असम के पूर्ण विनाश का पाप न करे।

आर्थिक स्थिति : 1977 और 1980

देश के आर्थिक संकट को गहरा करने के लिए वर्तमान सरकार की नीतियां या नीतियों का पूर्ण अभाव, जिम्मेदार है। चीन में वर्षों का नामकरण करने की परंपरा है। वे किसी वर्ष को चंद्रमा का वर्ष और किसी को सिंह का वर्ष पुकारते हैं। यदि हम उनका अनुकरण करें तो श्रीमती गांधी के प्रथम वर्ष को ‘घोंघे का वर्ष’ कहना पड़ेगा। इसकी तुलना में जनता शासन के दो वर्ष दौड़ते हुए घोड़े के वर्ष थे।

विकास की धीमी गति

गत वर्ष आर्थिक मोरचे पर पूरी जड़ता छाई रही। ऐसा लगा, मानो काल थम गया है। सबसे बुरा पहलू यह है कि सरकार को यह पता भी नहीं चला कि सबकुछ ठप है। वित्तमंत्री श्री वेंकटरमण बार-बार अपने आंकड़े बदलते रहे। उन्होंने जून में, जब अपना विनाशकारी बजट पेश किया था, यह कहा था कि औद्योगिक उत्पादन में 8 से 10 फीसदी तक की वृद्धि होगी। अब उन्हें स्वीकार करना पड़ा है कि वृद्धि 4 फीसदी से अधिक नहीं होगी। हमेशा की तरह इस बार भी वह गलत साबित होंगे। औद्योगिक विकास गत वर्ष से 2 प्रतिशत ही अधिक होगा।

बढ़ती मुद्रास्फीति

मूल्यवृद्धि को रोकने के आश्वासन पर चुनी गई सरकार के एक साल में दो ही चीजों में वृद्धि हुई है— पहला, मूल्य और दूसरा, शेयर बाजार शेष सबकुछ नीचे ही नीचे जा रहा है। जनता के शासनकाल में राष्ट्रीय आय में प्रतिवर्ष 6.2 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी। इस वर्ष 3 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि नहीं होगी। जनता शासन में औद्योगिक उत्पादन 5.5 प्रतिशत की दर से बढ़ा था, इस वर्ष यह केवल 2 प्रतिशत बढ़ेगा। जनता शासन में मूल्य स्थिर थे, उनमें नाममात्र की भी वृद्धि नहीं हुई थी, इस वर्ष उनमें 20 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है और वे लगातार बढ़ रहे हैं। प्रधानमंत्री का कहना है कि उन्होंने जनता पार्टी को एक अच्छी अर्थस्थिति सौंपी थी और जनता ने उसको तहस-नहस कर दिया। वह भूल जाती है कि 1976-77 में जनता शासन के एक वर्ष पूर्व सूखा पड़ा था। सूखा गत वर्ष भी पड़ा था। फिर भी जनता सरकार ने अच्छे परिणाम दिखाए तथा अर्थव्यवस्था का विस्तार हुआ; अब स्थिति उलट गई है।

घटता विदेशी मुद्रा भंडार

अच्छी आर्थिक स्थिति अच्छे विदेशी मुद्रा भंडार में दिखाई देती है। जनता शासन में विदेशी मुद्रा में 2350 करोड़ रुपए की वृद्धि हुई थी और जब हमने सरकार छोड़ी तो देश के पास 5200 करोड़ रुपए की विदेशी मुद्रा थी। तब से यह भंडार लगातार घट रहा है। प्रति वर्ष 600 करोड़ रुपए की कमी हो रही है। राष्ट्र की संपत्ति को उड़ाया जा रहा है।

केंद्रीय सरकार तथा योजना आयोग इस बात के लिए अपनी पीठ आप थपथपाते हुए नहीं थकते कि छठीं पंचवर्षीय योजना को बड़ी फुर्ती से अंतिम रूप दे दिया गया है। तथ्य यह है कि जनता शासन द्वारा तैयार पुरानी योजना को ही कांट-छांट तथा लीप-पोतकर नई योजना के रूप में पेश कर दिया गया है। इसके लिए सरकार को क्षमा किया जा सकता है। किंतु अब जो कुछ होनेवाला है और जिसके लिए शासन को कभी क्षमा नहीं किया जा सकता, वह है योजना को पूरी तरह रद करने की तैयारी। जिस तेजी से कीमतें बढ़ रही हैं, उससे योजना एक कागजी खिलौने से ज्यादा कुछ नहीं रही है।

हम इस बात पर संतोष करके न बैठें कि दुनिया के प्रथम 10 औद्योगिक देशों में भारत की गिनती होती है। हमारा स्थान पांचवां क्यों न हो? दुनिया तीव्र गति से आगे बढ़ रही है। छोटा देश दक्षिण कोरिया जैसे भी हमें मीलों पीछे छोड़ चुका है। देश की अर्थव्यवस्था साइकिल पर चढ़े व्यक्ति की तरह होती है; पैडल चलाना बंद करते ही सवार गिर जाता है। सरकार पैडल चलाना कभी का बंद कर चुकी है। अब तो वह गिरनेवाली है।

देश तकदीर के तिराहे पर

किंतु सवाल केवल सरकार के गिरने या पूरी तरह विफल हो जाने का नहीं है। लोकतंत्र में सरकारें आएंगी, सरकारें जाएंगी। सवाल तो यह है कि भारत राष्ट्र अपनी मूल्य-व्यवस्था के आधार पर वर्तमान काल की चुनौतियों का सफलतापूर्वक सामना कर एक उज्ज्वल भविष्य का निर्माण करने में समर्थ होगा या नहीं।

मित्रो, स्थिति गंभीर है। देश एक बार फिर तकदीर के तिराहे पर खड़ा है। एक ओर अधिनायकवाद का खतरा है, तो दूसरी ओर अराजकता का संकट है। दोनों का सामना करने के लिए हमें लोगों को संगठित करना होगा। भारतीय जनता पार्टी टकराव की राजनीति को पसंद नहीं करती। किंतु हम टकराव से कतराएंगे भी नहीं।

लोकतंत्र की रक्षा

भारतीय लोकतंत्र के प्राण 65 करोड़ लोगों की समानता की उत्कट आकांक्षा और शोषण की स्थितियों से मुक्ति की तीव्र आतुरता में बसते हैं। जो लोकतंत्र से खिलवाड़ करना चाहते हैं, उन्हें इतिहास लोकचेतना की तूफानी धारा में बहाकर ले जाएगा।

आवश्यकता इस बात की है कि गणतंत्र की रक्षा और नैतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना के इस संघर्ष में हम किसानों, मजदूरों, ग्रामीण गरीबों, दस्तकारों, युवकों, छात्रों तथा महिलाओं को भागीदार बनाएं तथा उनमें यह विश्वास पैदा करें कि अपनी स्थिति को सुधारने का उनका यत्न यथास्थिति को एकजुट होकर बदलने से ही पूरा होगा।

लोकतंत्र और सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष का आह्वान भारतीय जनता पार्टी राजनीति में, राजनीतिक दलों में तथा राजनेताओं में जनता के खोए हुए विश्वास को पुनः स्थापित करने के लिए जमीन से जुड़ी राजनीति करेगी। शिखर की राजनीति के दिन लद गए। जोड़-तोड़ की राजनीति का कोई भविष्य अब नहीं रहा। पद, पैसा और प्रतिष्ठा के पीछे पागल होनेवालों के लिए हमारे यहां कोई जगह नहीं है। जिनमें आत्मसम्मान का अभाव हो, वे दरबार में जाकर मुजरे झाड़ें, हम तो एक हाथ में भारत का संविधान और दूसरे में समता का निशान लेकर मैदान में जूझेंगे। हम छत्रपति शिवाजी महाराज के जीवन और संघर्ष से प्रेरणा लेंगे। सामाजिक समता का बिगुल बजाने वाले महात्मा फूले हमारे पथ-प्रदर्शक होंगे।

कमल खिलेगा

देश के पश्चिमी घाट को मंडित करनेवाले महासागर के किनारे खड़े होकर मैं यह भविष्यवाणी करने का साहस करता हूं कि ‘अंधेरा छंटेगा, सूरज निकलेगा, कमल खिलेगा।’ वंदेमातरम् समाप्त