पटरियों पर बैठने वाले विक्रेताओं की समस्याएं

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पटरी वालों का क्या किया जाए? क्या हम मानवता के दृष्टिकोण से इसका विचार कर सकते हैं? आज अधिकारी इस नाते विचार करने को तैयार नहीं कि लोगों की जीविका का प्रबंध करना भी उनकी जिम्मेदारी है। वे दिल्ली के सौंदर्य का विचार कर सकते हैं, मोटर के रास्ते की चिंता कर सकते हैं और दुकानदारों और पटरी वालों में संघर्ष पैदा करके अपना मतलब भी पूरा कर सकते हैं, किंतु इन पटरी वालों को कहीं दूसरी जगह बैठने का प्रबंध करने के लिए तैयार नहीं।

दीनदयाल उपाध्याय

दिल्ली में पटरी पर बैठने वाले विक्रेताओं की समस्या विषम रूप धारण करती जा रही है। शायद जितने दुकानदार हैं, उनसे ज्यादा संख्या ऐसे लोगों की है, जो बिना किसी दुकान के खोमचों, ठेलों और रेहड़ियों के सहारे अपनी जीविका चलाते हैं। दिल्ली नगरपालिका के उपनियमों के अनुसार इन लोगों को पटरियों पर बैठकर बेचने की इजाज़त नहीं है। दिल्ली के अधिकारियों के सामने ट्रैफ़िक की भी समस्या है, क्योंकि इन पटरी वालों और खोमचों वालों के कारण सड़क पर इतनी भीड़ हो जाती है कि मोटर आदि का तो निकलना ही दुष्कर हो जाता है। फिर दुकानदारों की भी शिकायत है। सामने पटरी पर बैठे हुए व्यापारियों के कारण दुकानदारी में भी बाधा पहुंचती है। नगर के सौंदर्य का भी प्रश्न है। टूटे-फूटे ठेलों और गंदे खोमचों से राजधानी की सड़कों का सौंदर्य मारा जाता है। फलत: दिल्ली सरकार ने पटरी वालों के खिलाफ जोरदार मुहिम छेड़ दी है। नगर पालिका के उपनियमों के अतिरिक्त धारा 144 लगाकर चांदनी चौक में पटरी वालों का बैठना रोक दिया है। अन्य क्षेत्रों में भी धारा लागू करने की योजना है।

फलत: दिल्ली के लगभग 21 हज़ार परिवार आज जीवन और मृत्यु के बीच की घड़ियां गिन रहे हैं। उनकी आजीविका का साधन जाता रहा है। अगर चोरी-छिपे कहीं पटरी पर बैठे कि पुलिस आ धमकती है। दो-चार आने देकर क़ानून के शिकंजे से बचा जाता है। अगर कोई टेढ़ा सा सिपाही आ गया तो वह गाली-गुफ्ता तथा मार-पीट के साथ उसके खोमचे को भी फेंक देता है। शाहदरा अड्डे पर कुछ आम बेचने वालों से पुलिस के सिपाही ने दो-दो आने के आम लिए। थोड़ी देर में सादा लिबास में एक इंस्पेक्टर साहब आए भ्रष्टाचार निरोधक विभाग के। उन्होंने आंखों से देखा था पुलिस के सिपाही को घूस लेते। फल वालों से मारपीट कर कबूल कराया कि उन्होंने सिपाही को दो-दो आने दिए, किंतु अंत में कुछ ले-देकर मामला रफा-दफा हो गया। बेचारे फल वालों की आत्मा इतनी दब गई कि उनसे पूछने पर वे सत्य बताने को भी तैयार नहीं और न कहीं इस घटना की शिकायत करने को राजी हैं।

पहाड़गंज में एक पुलिस सिपाही ने एक घास बेचने वाली बुढ़िया की घास थोड़ी-थोडी करके संपूर्ण सड़क पर बिखेर दी। एक चाट वाले के खोमचे में फुटबॉल की तरह वह ठोकर मारी कि खोमचा दूर सड़क पर गिर पड़ा तथा चाट सड़क को चाटने लगी। इन घटनाओं के पीछे अधिकारियों की वह मनोवृत्ति है, जो नीरो की थी। डिग्री का अंतर हो सकता है, दृष्टिकोण का नहीं।

पटरी वालों का क्या किया जाए? क्या हम मानवता के दृष्टिकोण से इसका विचार कर सकते हैं? आज अधिकारी इस नाते विचार करने को तैयार नहीं कि लोगों की जीविका का प्रबंध करना भी उनकी जिम्मेदारी है। वे दिल्ली के सौंदर्य का विचार कर सकते हैं, मोटर के रास्ते की चिंता कर सकते हैं और दुकानदारों और पटरी वालों में संघर्ष पैदा करके अपना मतलब भी पूरा कर सकते हैं, किंतु इन पटरी वालों को कहीं दूसरी जगह बैठने का प्रबंध करने के लिए तैयार नहीं। आज भी क़ानून के विरुद्ध होते हुए चांदनी चौक में सड़क के दोनों ओर मोटरों की कतार-की-कतार खड़ी रहती है। उसे अधिकारी नहीं रोकते। इस क्षेत्र में मोटरों का आना भी रोका जा सकता है। अगर किसी को खरीद-फरोख्त के लिए आना है तो वह मोटर चांदनी चौक के बाहर छोड़कर पैदल आए।

दिल्ली का प्रश्न तो केवल उदाहरणस्वरूप है। आज देश में जिस प्रकार भूमिहीन किसानों की समस्या है, वैसे ही दुकानहीन व्यापारियों की भी बहुत बड़ी समस्या है। हमें उसका कोई हल ढूंढना होगा। हमारे अधिकारियों को भी नगर का सुधार करने की धुन में केवल पश्चिम के नगरों का नहीं, अपितु भारत की आज की समस्या का भी विचार करना होगा। आज तो ऐसा लगता है कि अधिकारियों को लोगों के जीवन के साथ खिलवाड़ करने का तो आधार दे दिया गया है, किंतु उनके ऊपर जिम्मेदारी कोई नहीं है। फिर बडे-बडे बंगलों में रहने वाले, मोटर में चलने वाले सभी प्रश्नों की ओर अपने ही चश्मे से देखते हैं। गरीबों की समस्या ही उनकी समझ में नहीं आती।

नेहरूजी की रूस यात्रा और गोवा मुक्ति का प्रश्न

नेहरूजी विदेश यात्रा के पश्चात् भारत आ गए हैं। देश के जन-जन ने उनका स्वागत किया है। उन्होंने भारत का संदेश रूस और पूर्वी यूरोप के उन क्षेत्रों तक पहुंचाया, जहां पिछले 35 वर्षो में दूसरे देश का आदमी तो क्या, परिंदा भी पर नहीं मार सकता था। उनकी यश पताका दिग्दिगंत में फहराई, यह सब हमारे लिए गर्व की बात है। किंतु जब नेहरूजी वापस लौटकर आ गए हैं, हम पूछेंगे, ‘आप हमारे लिए क्या लाए?’ चीन और फारमोसा, जिनेवा और बड़ी शक्तियों की बातचीत इन सबकी तो चर्चा हुई, किंतु हमारे सामने तो प्रश्न है गोवा का। उसका क्या हुआ ?

हम नेहरूजी को बताना चाहेंगे कि उनकी अनुपस्थिति में गोवा के प्रश्न को लेकर भारत में बहुत बड़ा आंदोलन हुआ है। हमें नहीं मालूम कि विदेश में रहते हुए उन्हें देश की खबरें मिलती रहीं या नहीं। पर हम यह जानते हैं कि उन्होंने अपनी विदेश यात्रा में कहीं भी गोवा का जिक्र नहीं किया। पोप के साथ भी शायद इतनी ही वार्त्ता हुई है कि गोवा का प्रश्न राजनीतिक है। किंतु यह राजनीतिक प्रश्न हल कैसे होगा? इसका कोई विचार नहीं हुआ। हमें यह भी दुःख के साथ कहना पड़ता है कि नेहरूजी ने गोवा में हुए शहीद वीर अमीरचंद्र गुफा के संबंध में दो शब्द भी नहीं कहे। स्पष्ट है कि विदेशों में नेहरूजी देश को भूल गए। अत: देश में आकर वे घर की सुध लें। ऐसा न हो कि यहां भी वे विदेशों की रट लगाते रहें और उनके ही गुण गाते रहें।

क्या अनुसरण किया जाएगा ?

गुड़गांव जिले का समाचार है कि वहां के जिला मजिस्ट्रेट ने अपने चौदह वर्षीय पुत्र के ऊपर अभियोग चलाने की आज्ञा दे दी है। पुत्र का अपराध है, प्रतिबंध होते हुए भी हवाई बंदूक से एक खरगोश की हत्या। मजिस्ट्रेट ने जिस न्याय-बुद्धि का परिचय दिया है, वह स्तुत्य है। क्या ही अच्छा हो, यदि हमारे सभी अधिकारी इस मनोवृत्ति का परिचय दें। इसके प्रतिकूल हमें ज्ञात है कि लाखों का घोटाला करने वाले व्यक्तियों की कांग्रेस शासन ने पुनः बढ़ोतरी की है। इंग्लैंड में जीप का सुविख्यात घोटला होने के पश्चात् भी श्री कृष्ण मेनन आज नेहरूजी के कृपापात्र होने के कारण सब प्रकार की जांच और अदालती कार्रवाई से बचाकर अधिकाधिक जिम्मेदारी के पदों पर लाए जा रहे हैं। ऐसा लगता है कि ऊपर के लोगों को ठीक करने के लिए नीचे से ही आदर्श उपस्थित करना पड़ेगा। यह जनतंत्र जो है।

– पांचजन्य, जुलाई 18, 1955