राष्ट्रपुरुष- श्रीराम

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शिवप्रकाश

द्रं इच्छन्तः (लोक कल्याण) की भावना को लेकर ऋषियों की साधना, त्याग, तपस्या के परिणामस्वरूप भारत राष्ट्र का उदय हुआ। अपने प्रारंभ काल से ही भारत (भा+रत) अज्ञान के तिमिर को हटाकर ज्ञान के प्रकाश को विश्व में प्रसारित करने में संलग्न है। ऋषियों की इसी आकांक्षा पूर्ति के लिए जिन महापुरुषों ने अपने जीवन का आदर्श इस राष्ट्र के सम्मुख प्रस्तुत किया है, मर्यादाओं के पालन एवं श्रेष्ठ आचरण के कारण ही समाज ने उनको भगवान की श्रेणी से विभूषित कर अपने जीवन के उद्धारक के रूप में स्वीकार किया है। उन्हें आज संपूर्ण विश्व प्रभु श्री राम के नाम से संबोधित कर रहा है।

भारतीय संस्कृति लोक कल्याण कारक, समन्वय भाव से युक्त एवं चराचर जगत में एक ही परम तत्व के दर्शन कराने वाली है। सभी भेदों से ऊपर उठकर हम सभी एक ही परमात्मा की संतान हैं एवं प्रत्येक स्त्री मां के समान है, यह उदात्त विचार ही भारतीय संस्कृति को विश्व संस्कृतियों से भिन्न दर्शाता हैं। भारतीय जनमानस अपने जीवन में इन्हीं सद् संस्कारों को जीता आया है। भारतीय संस्कृति के यह सभी संस्कार जिस पुरुष के जीवन में एक ही साथ प्रकट हुए, वह प्रभु श्रीराम का जीवन है। मां सीता की मुक्ति के लिए रावण से उनका युद्ध समस्त स्त्री जाति की मर्यादा की रक्षा के लिए था। रामेश्वरम में शिव की आराधना समस्त संप्रदायों में सद्भाव का मार्गदर्शन था। जिसको महाकवि तुलसीदास जी ने प्रभु श्रीराम के मुख से कहलाया कि “शिव द्रोही मम दास कहावा। सो नर मोहि सपनेहुं नही भावा।” भारतीय संस्कृति का आदर्श भोग नहीं त्याग है। पिता दशरथ की आज्ञा पालन करने के कारण राम को सिंहासन त्याग करना पड़ा। सत्ता संघर्ष के इस कालखंड में राम का त्याग प्रेरणादायी है। उनको सिंहासन छूटने का दु:ख नहीं, वह प्रसन्नता से उसका त्याग करते हैं।

राम कहते हैं कि-

स्नेहं दयां च सौख्यं च, यदि वा जानकीमपि।
आराधनाय लोकस्य मुञ्चतो, नास्ति में व्यथा।।

(देश व समाज की सेवा के लिए स्नेह, दया, मित्रता यहां तक कि धर्मपत्नी को छोड़ने में भी मुझे कोई पीड़ा नहीं होगी।)

हमारी मान्यता है कि इस सृष्टि को संचालित करने वाली एक परम शक्ति है। वह शक्ति ही हम सभी में आत्मा के रूप में विद्यमान हैं। इस कारण अपने जीवन को भौतिक सुख सुविधाओं में न फंसाकर अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए हम सभी अपनी जीवन लीला को उसी परम सत्ता में विलीन कर दें। स्वयं को जानना, अध्यात्म के मार्ग पर चलकर स्वयं को जानना (नर से नारायण) एवं अपने जीवन की यात्रा को पूर्ण करना, प्रभु श्री राम का जीवन इसका भी आदर्श है। इसी आदर्श के कारण हमने उन्हें परम सत्ता ईश्वर के रूप में स्वीकार किया है। साकार स्वरूप में आज प्रभु श्रीराम, मां भगवती (सीता) एवं लक्ष्मण के विग्रह के साथ संपूर्ण विश्व के असंख्य मंदिरों में विद्यमान है। “घट-घट में राम” के भाव से निराकार रूप में भी उनकी प्राप्ति की इच्छा लेकर “श्री राम जय राम जय जय राम” महामंत्र का जप करते हुए सदियों से अनेक साधु संत एवं सामान्य नागरिकों को हम साधनारत देख रहे हैं। प्रभु श्रीराम हम सभी के उद्धारक हैं।

प्रतिदिन व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन जीते समय कभी हमको सफलता मिलती है तो कभी निराशा भी हाथ आती है। सफलता प्रभु श्रीराम के कारण मिली है। इसलिए, उत्साह प्रकट करने के लिए राम की पूजा, यदि असफलता मिली तब राम की इच्छा नहीं थी वह भी उन्हीं को समर्पित है, अतः सफलता या विफलता में प्रभु श्रीराम ही हमारे सहारा हैं| “मृत्यु भी हमको राम नाम सत्य हैं|” यह सीख देती है।

हमारा देश विविधता से भरा देश है। भौगोलिक एवं जलवायु की भिन्नता के कारण हममें भी अनेक विविधताएं दिखाई देती हैं। शरीर का रंग, कद, भोजन, पहनने के वस्त्र, भाषा, जन्म के आधार पर जाति भेद, मान्यताएं आदि को समेटे हुए यह अरबों की जनसंख्या वाला समाज है। प्रभु श्रीराम द्वारा 14 वर्ष की वन गमन अवधि में अयोध्या से चलकर श्री लंका तक की यात्रा में वह सभी भेदों को मिटाते एवं समन्वय स्थापित करते हुए दिखाई देते हैं। निषादराज गुहा के साथ मित्रता, मां शबरी के हाथ के जूठे बेर, वानरों के साथ उनकी मित्रता सभी प्रकार के भेदभावों को नकारती हुई दिखती है। यही कारण है कि उत्तर से दक्षिण, पूरब से पश्चिम राम सर्वत्र दिखाई देते हैं। भाषा की इतनी विविधताओं के बावजूद भी प्रभु राम के नाम पर अपने बच्चों के नाम रखना, सभी भाषाओं में रामायण की रचना, घर-घर में राम का साहित्य और उनकी लीलाओं का मंचन समाज के प्रत्येक वर्ग में उनकी स्वीकृति को दर्शाता है। अपने आदर्श व्यवहार के कारण राम सब में एवं सभी राम में समाये हैं। इसी सत्य को गोस्वामी तुलसीदास जी ने “सिया राम मय सब जग जानी” कहकर गाया है।

गुलामी के कालखंड में हमारे देश के लोगों को अंग्रेज भारत के बाहर दास बनाकर लेकर गए। दुनिया के अनेक देशों में गिरमिटिया मजदूर कहलाने वाले यह भारतीय अपने पुरुषार्थ के कारण आज वहां पर भी प्रभावी बन गए हैं। उनमें से अनेक वहां के संवैधानिक दायित्वों का निर्वहन करते हुए उन देशों की सेवा भी कर रहे हैं। विदेश ले जाते समय ये भारतीय अपने साथ रामायण, श्रीरामचरितमानस एवं प्रभु श्रीराम का विग्रह साथ लेकर गए थे। राम ने उनको संकटों में भी धैर्य से जीवन जीना सिखाया। उनको आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। आज उन सभी देशों में प्रभु श्रीराम के मंदिर, रामलीला का मंचन एवं रामायण वर्तमान पीढ़ी का मार्गदर्शन कर रही है। इस तरह प्रभु श्री राम; केवल भारत ही नहीं विश्व भर में फैले असंख्य भारतीयों के साथ-साथ विश्व भर के नागरिकों में मर्यादा पूर्ण जीवन जीने की प्रेरणा दे रहे हैं। दक्षिण अफ़्रीका, मिस्र, अमेरिकी एवं यूरोपी देशों सहित थाईलैंड, कंबोडिया, बर्मा, इंडोनेशिया, मलेशिया, जावा एवं बाली सहित दुनिया के अनेक देश इसके प्रत्यक्ष साक्षी हैं।

अपने श्रेष्ठ आदर्श आचरण एवं गुणों के कारण राम में ही राष्ट्र का स्वरूप प्रकट होता है। राम राष्ट्र रूप ही हैं। इस कारण उस समय के ऋषियों एवं उसके बाद के कवि-साहित्यकारों ने भी उनको राष्ट्र के रूप में ही स्थापित किया है। इसके अनेक उदाहरण साहित्य में विद्यमान है। महर्षि बाल्मीकि प्रभु श्रीराम के श्रेष्ठ गुणों का वर्णन करते समय राम और राष्ट्र का एक ही रूप में परिचय देते हैं। भारत का भूगोल हिमालय से प्रारंभ होकर समुद्र पर्यंत विस्तृत है। राम के गुणों का परिचय कराते समय बाल्मीकि लिखते हैं कि वह धैर्य में हिमालय एवं गंभीरता में समुद्र के समान है। “समुद्र इव गाम्भीर्ये धैर्येण हिमवानिव”। वह स्वयं “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी” कहकर मां एवं मातृभूमि को महिमामंडित करते हैं। वनवास जाते समय राजगुरू वशिष्ठ कैकेयी को बताते हैं कि राम जहां राज नहीं करेगा, वह राष्ट्र नहीं होगा। राम जिस वन में रहेगा वह राष्ट्र हो जाएगा।

न हि तद्भविता राष्ट्रं यत्र रामो न भूपतिः।
तद्वनं भविता राष्ट्रं यत्र रामो निवत्स्यति।।

राजा दशरथ की मृत्यु के बाद की परिस्थिति पर गंभीरता व्यक्त करते हुए सभी ऋषि कहते हैं कि- “नृपं बिना राष्ट्रं अरण्यभूतं”। उस समय भी उनकी चिंता राष्ट्र के संदर्भ में ही थी।

भगवान श्रीराम ने राजा राम के रूप में जिस लोक कल्याणकारी शासन को हमको दिया, वह आज भी आदर्श है। प्रत्येक व्यक्ति के मत का सम्मान, लोकतांत्रिक व्यवस्था, आरोग्य, शिक्षा, समाज में परस्पर सौहार्द, विषमता रहित समाज यही उनके शासन की विशेषता थी। आज भी हम आदर्श राज्य के रूप में रामराज्य की ही कल्पना करते हैं। हमारे संविधान निर्माताओं की बहस में भी आदर्श राज्य के रूप में रामराज्य की ही चर्चा होती है।

महात्मा गांधी सदैव रामराज्य जी के ही पक्षधर थे। रामराज्य में राजा में सभी का कल्याण और सेवा का भाव निहित था। इसी कारण आदर्श के रूप में संविधान के पृष्ठों पर राम जी के चित्र को उकेरा गया है।
राम! जन-जन के राम है। राम हमारे आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक मान्यताओं के प्रतीक है। राम राष्ट्र के प्रतीक है। वह राष्ट्रपुरुष हैं। राम की शासन व्यवस्था आज भी सभी के लिए आदर्श एवं अनुकरणीय है। उनकी स्मृति में बनें प्रतीक, सदैव हम को प्रेरणा देते रहेंगे।

लेखक भाजपा के राष्ट्रीय सह महामंत्री (संगठन) हैं