वास्तविक सुख

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पं. दीनदयाल उपाध्याय

पने सुख की, उन्नति और हित की कामना प्रत्येक व्यक्ति में रहती है। किंतु हमारी उन्नति की दिशा क्या है, हित किस में है, जिसे हम सुख समझते हैं, वह वास्तविक सुख है या नहीं, यह बहुधा लोगों को पता नहीं रहता। इसके संबंध में अनेक विवाद हैं, और उनसे अनेक बार मति भ्रम भी हो जाता है।

उन्नति क्या है?

बहुत लोग केवल परिवर्तन को ही उन्नति मानते हैं। आजकल इसे क्रांति का नाम भी दिया जाता है। हर व्यक्ति अपने आपको क्रांतिकारी कहलाना चाहता है, लेकिन वह क्रांति का अर्थ ठीक से नहीं जानता। यदि परिवर्तन ही क्रांति या उन्नति है तो उलटी दिशा में जाने पर भी परिवर्तन तो होता ही है। इस परिवर्तन को उन्नति कहना उचित नहीं होगा।

मान लो, हमें हिमालय की ओर जाना है तो उत्तर की ओर जाना प्रगति होगी और दक्षिण की ओर जाना अधोगति। इसलिए केवल परिवर्तन उन्नति और क्रांति नहीं होती। उन्नति का संबंध तो दिशा से होता है। अभीष्ट दिशा की ओर और ध्येय के नजदीक ले जानेवाला परिवर्तन ही क्रांति या उन्नति कहलाएगा।

लाभदायक तथा हितकारी बात कौन सी है ?

कई बार प्रत्यक्ष लाभदायक बात वास्तविक दृष्टि से लाभदायक नहीं होती, जैसे कुछ पैसे मिलना लाभ की बात होती है। मुझे सौ रुपए मिले, इसमें लाभ दिखाई देता है, लेकिन यदि वे रुपए चोरी के अथवा जेबकतरे हुए हैं और मुझे मिल गए हैं, तो वो मुझे लाभ के बजाय नुकसान पहुंचानेवाले हो जाएंगे। उनके कारण चोरी का जुर्म, पुलिस का दुर्व्यवहार और प्रतिष्ठा को ठेस लगेगी, इसलिए कुछ मिलना मात्र लाभदायक और हितकारी नहीं होता। लाभ और हित का विचार तो उसके परिणाम के आधार पर होता है। शरीर, मन, प्रतिष्ठा— सभी पर परिणाम का विचार करने पर जो लाभदायक या हितकर होगा, वही लाभदायक या हितकर माना जाएगा।

सुख की कल्पना

सुख के लिए भी इसी प्रकार विचार करना उचित रहेगा। कई बार एक समय पर सुखकर लगनेवाली बात दूसरे समय पर दुःखकर सिद्ध हो जाती है। बीमार को रसना का सुख प्रारंभ में अच्छा लगता है, वह आचार खाने में सुख का अनुभव करता है, लेकिन उसका परिणाम दुःखकारक होता है। सिनेमा देखने में अच्छा लगता है, लेकिन निरंतर देखने से हमारी आंखों के लिए ही हानिकारक हो जाता है। इसके लिए हमारे यहां प्रेय और श्रेय दो प्रकार के सुख की कल्पना की गई है। प्रेय वस्तु पहले सुखकारी लगती है और बाद में दुःखदायी हो जाती है। कबीरदासजी ने कहा है, ‘कड़वी भैषज बिन पिए मिटे न तन की ताप’ श्रेय वस्तु प्रारंभ में औषधि के समान कड़वी लगती है, लेकिन शरीर का कष्ट मिटानेवाली होती है। इसी प्रकार अधिकारी की ताड़ना प्रारंभ में बुरी लगती है, लेकिन उसका प्रभाव अच्छा होता है।

एक डाकू की कथा है, डकैती के कारण पकड़ा गया और उसे फांसी की सजा हुई। उसने अपनी आख़िरी इच्छा व्यक्त की। ‘मैं अपनी मां के कान में बात करना चाहता हूं।’ जब माता आई और उसके पास गई तो उसने अपनी मां के कान काट लिये। लोगों ने समझा, यह मरते-मरते भी मां को कष्ट दे रहा है। लेकिन उसने कहा, ‘मुझे आज जो फांसी की सजा मिली उसकी जिम्मेदार मां है। एक दिन मैं पड़ोसी के यहां से खेलते-खेलते पंखा ले आया। माता आनंदित हुई और पंखे को रख लिया। दूसरे दिन उत्साह से मैं पड़ोसी की अन्य चीजें चुराकर लाने लगा, माता उन्हें भी रखने लग गई। इस प्रकार मेरी चोरी-डकैती आदि की आदत पड़ गई और मुझे आज का दिन देखना पड़ा है।’ इस प्रकार प्रारंभ का आनंद अंत में जाकर दुःखदायी हो जाता है। इसलिए वास्तविक सुख क्या है, इस पर विचार करना पड़ेगा। गहना पहनना और भारी गहने पहनना गौरव तथा गर्व की बात मानी जाती है। लेकिन वो यदि कान तोड़नेवाली हो तो उसका क्या उपयोग है? ‘वा सोने को जारिए जासे टूटे कान’ आजकल टाई लगाने की प्रथा बहुत है, शौक से, आनंद से लगाई जाती है, लेकिन गरमी में गरमी बढ़ाने की तकलीफ़ मनुष्यों को मन ही मन बरदाश्त करनी पड़ती है। इस प्रकार वास्तव में तकलीफ़ देनेवाली टाई दिमाग की खराबी के कारण सुखकारी प्रतीत होती है।

सुख-दुःख, हित-अहित, उन्नति-अधोगति क्या है, इसका विचार करना होगा। मेरे लिए सुखकारी है, ‘मैं’ कौन है? उत्तर कठिन है। यह शरीर ही मैं नहीं, शरीर ही व्यक्ति नहीं होता। बहुत बार लोग मानते हैं कि शरीर जाने पर भी उसका सामर्थ्य बना रहता है। राम का कल्याण करने का सामर्थ्य आज भी बना हुआ है। रावण वैसे मर गया होगा, लेकिन रावण अपने कार्यों के लिए जिंदा है। इसलिए कोई रावण या शूर्पणखा नाम नहीं रखना चाहता। महान् पुरुषों के जीवन समाप्त हो जाते हैं। उनके कार्य हमें प्रेरित करते रहते हैं।

इसलिए यह शरीर को ही सब कुछ मान लेना उचित नहीं है। ताक़तवर शरीर रखने के उपरांत भी एक पागल सुखी, प्रगतिशील या उन्नत नहीं कहला सकता। जो सुख शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा सभी को सुखी बना सके, वही सच्चा सुख है। शेर के पिंजरे के सम्मुख बकरी को बांध दिया जाए और उसे पौष्टिक भोजन देते रहने पर भी वह दुर्बल होती जाती है। कारण उसे शेर अथवा मौत का भय मन में बना रहता है। इस प्रकार पौष्टिक भोजन के साथ मन की स्थिति भी सुख में सहयोगी होती है। मन के सुख में ही शरीर भी सुखी रहेगा।

देवता और असुर में यही अंतर है कि देवता के विचार उच्च होते हैं, शरीर चाहे उतना शक्तिशाली न हो। असुर शक्तिशाली होता है, लेकिन उसमें मानसिक विकार बहुत होता है। रावण के कई सिरों में इसलिए एक गधे के सिर को खर दिमाग की कल्पना दी गई है। वही राक्षसी वृत्ति है।

सज्जन और दुर्जन में यही अंतर होता है कि धन मिलने पर सज्जन दान देता है, दुर्जन घमंड करता है। शक्ति मिलने पर सज्जन रक्षण करता है, दुर्जन दादागिरी, गुंडागिरी करता है। विद्या मिलने पर सज्जन ज्ञान प्राप्त करता है, दुर्जन कुतर्क करता है और प्रसार करता है, यही राक्षस और देवता में भी अंतर है।
आज समाज के कुछ लोग रोटी को ही सब कुछ मानने लगे हैं, पर अकेली रोटी ही सब कुछ नहीं होती। रोटी के लिए मानव प्रयत्न 5 से 8 प्रतिशत तक ही करता है। अन्य प्रयत्न मानव के महत्त्वपूर्ण कार्य माने जाते हैं।

रोटी के साथ-साथ मक्खन, चटनी, रोचक पदार्थ, शराब भी मनुष्य आवश्यक मानने लगता है। इसी प्रकार कपड़े की सामान्य आवश्यकता बढ़िया कपड़े, अधिक कपड़े, फैशन के कपड़े के रूप में बढ़ती रहती है। मनुष्य की इच्छाएं हनुमानजी की पूंछ के समान बढ़ती हैं। इच्छाओं को आप जितनी तृप्त करते चले जाओ, उतनी ही ये बढ़ती हैं।

रोटी के साथ गाली देने पर अनादर करने पर व्यक्ति रोटी को भी द्वितीय महत्त्व दे देता है। निमंत्रण से ही भोजन पर जाने की प्रथा है, इसलिए भगवान् कृष्ण ने इसी भावना से दुर्योधन का मेवा त्यागा और विदुर के घर पर केले के छिलके भी आनंदपूर्वक खा लिए। इसलिए यह कहना कि मनुष्य केवल रोटी के लिए ही जीता है, अधूरी कल्पना है। मान लीजिए, आपको यहां से जयपुर जाना है तो सबसे पहला काम आप स्टेशन पर जाकर टिकट खरीदने का करेंगे, लेकिन आप कहेंगे, मुझे जयपुर जाना है, टिकट खरीदना है नहीं कहेंगे। इसी प्रकार रोटी पहला कार्य हो सकता है, लेकिन जीवन का उद्देश्य नहीं मनुष्य खाने के

सुख इंद्रियों पर ही आधारित नहीं
होता; शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा-
सभी को सुख हो, वही वास्तविक
सुख होता है। पश्चिम की दृष्टि में
सुख को एकांगी दृष्टिकोण से
देखा गया है। भारत में सुख को
समग्र दृष्टि से देखा जाता है

लिए नहीं जीता, मनुष्य जीवन तो भोजन के आगे है। रोटी भी मनुष्य के अनुरूप होना आवश्यक है पेट कुआं नहीं है कि कुछ भी इसमें भर दिया। जीवन के उद्देश्य के अनुरूप देशकाल परिस्थिति के अनुसार रोटी होनी चाहिए। जिस प्रकार उज्जैन जाने के लिए खंडवा का टिकट काम नहीं दे सकता। उसी प्रकार पहलवान की रोटी, योगी की रोटी और गृहस्थी की रोटी में अंतर होता है। जीवन के उद्देश्य से रोटी तय होती है और उद्देश्य को हटाकर केवल रोटी का नारा लगाना ग़लत होगा।

सुख इंद्रियों पर ही आधारित नहीं होता; शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा- सभी को सुख हो, वही वास्तविक सुख होता है। पश्चिम की दृष्टि में सुख को एकांगी दृष्टिकोण से देखा गया है। भारत में सुख को समग्र दृष्टि से देखा जाता है।

व्यक्ति तथा समाज

व्यक्ति का सुख समाज के साथ है, व्यक्ति और समाज अलग-अलग चीजें नहीं हैं। व्यक्ति समाज का ही एक अंग है। व्यक्तियों को हटाकर समाज का कोई विचार नहीं होता समाज यदि क्रियाशील होता है तो व्यक्ति के द्वारा ही समाज का सुख-दुःख व्यक्तियों के द्वारा व्यक्त होता है और समाज ही व्यक्ति को विभिन्न सामाजिक कार्यों की प्रेरणा देता है।

महात्मा गांधी, परम पूजनीय डॉक्टर साहब, सुभाष चंद्र बोस, भगतसिंह, बटुकेश्वर दत्त प्रभृति हमारे नेता सामाजिक प्रेरणा के कारण ही अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य कर सके। व्यक्ति समाज पर निर्भर रहता है। मेरा नाम, मेरा शरीर, मेरी आदतें, व्यवहार सब समाज द्वारा दिए हुए हैं। समाज द्वारा ही मनुष्य खड़ा होता है, चलना-फिरना, खाना-पीना, बोलना आदि सीखता है।

रामू भेड़िया बालक समाज से दूर हो गया। इस कारण उसका खाना, रहना, चलना, बोलना-सभी भेड़ियों के समान हो गया। यूरोपीय लोग पालथी मारकर नहीं बैठ सकते। अफ्रीका में औरतें पैर फैलाकर बैठती हैं। ऐसा कहा जाता है, उनके पांव नहीं मुड़ते, इन सभी आदतों में समाज का प्रभाव मुख्य है।

हमारी भाषा भी समाज द्वारा दी हुई है। भाषा विचार प्रकट करने का ही माध्यम नहीं है, वरन् यह विचार करने का भी साधन है। जैसा अभी किया जा रहा है। शिक्षा भी व्यक्ति को समाज द्वारा ही मिलती है। अच्छी-बुरी की कल्पना समाज द्वारा ही होती है। अतः समाज से अलग होकर सोचना गलत है। सुख, उन्नति और हित में व्यक्ति और समाज दोनों दृष्टियों से सोचना जरूरी है। यही पूर्णता का विचार है। मैं, शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा है। मैं और हम एक हैं। मैं हिंदू हैं, मैं भारतवासी है, मैं मानव है— यही पूर्णता का विचार है। मानवता, हिंदुत्व आदि भावनाएं निकाल देने पर ‘मैं’ नहीं बचेगा। इसलिए ‘मैं’ में समाज का भी समावेश है। इस प्रकार कुल मिलाकर विचार करने का हमारा तरीक़ा है। हम लोग भी कुल मिलाकर विचार करें। यही हमारे भारतवर्ष की दृष्टि है।

-संघ शिक्षा वर्ग, बौद्धिक वर्ग: मई 26, 1967