राष्ट्रीयता कभी मानवता विरोधी नहीं होती

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पं. दीनदयाल उपाध्याय

पने सुख, हित और उन्नति के लिए व्यक्ति को न केवल अपने शरीर का, बल्कि मन, बुद्धि और आत्मा का भी विचार करना होगा, क्योंकि इन चारों का समुच्चय ही व्यक्ति है।

इसी के साथ हमने यह भी विचार किया था कि व्यक्ति केवल अकेली इकाई नहीं, वह एक सामाजिक प्राणी है। समाज के लिए उसका घनिष्ठ संबंध है। मनुष्य की बौद्धिक, धार्मिक, भौतिक, मानसिक, आध्यात्मिक मान्यताएं, मूल्य, आदर्श-सब समाज से मिलते हैं। इसलिए समाज को भुलाकर उसका विकास नहीं हो सकता।

परंतु यह एक विवाद है, और प्रश्न बना है कि व्यक्ति तथा समाज में कौन बड़ा है और दोनों में क्या संबंध है? कुछ लोग व्यक्ति को प्रमुखता देते हैं। दूसरे लोग कहते हैं कि समाज बड़ा है। समाज को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति व्यक्ति द्वारा करवानी चाहिए। व्यक्ति की सभी गतिविधियां समाज की आवश्यकता के अनुरूप हों। यह विवाद बेमाने है। वास्तव में व्यक्ति और समाज का जीवमान संबंध है।

समाज क्या है?

मोटे रूप में समाज समूहवाचक संज्ञा की ध्वनि है। समाज वर्ग का द्योतक होता है। कुरसी एक वस्तु है और फर्नीचर समूहवाचक है। इसी प्रकार विद्यार्थी तथा क्लास का संबंध है। समाज भी व्यक्तियों के समूह को कहा जाएगा।

दूसरा प्रश्न होता है, समाज में कितने लोगों का कैसा समूह होना चाहिए? क्या व्यक्तियों के मिलने से ही समाज बन जाता है? क्या रोटरी क्लब, अंतरराष्ट्रीय क्लब, रजिस्टर्ड सोसाइटी समाज कहलाएंगे? क्या सिनेमा, रेलगाड़ी, मैच देखनेवाले दर्शक, बाज़ार की भीड़ समूह होने के कारण ही समाज कहे जाएंगे? क्या चार डाकुओं का गिरोह, जिसमें प्रेम-अनुशासन दोनों ही आते हैं, अपने वर्ग के लिए उत्सर्ग की भावना भी उनमें होती है, समाज कहलाएगा? वास्तव में यह समाज नहीं कहलाएगा।

समाज ऐसे मानवों का समूह है, जो बनता नहीं पैदा होता है। समाज बनावटी तरीक़ों से नहीं बनाया जा सकता। जिस प्रकार ज्वॉइंट स्टॉक कंपनी, रजिस्टर्ड सोसाइटी या अन्य सामाजिक, धार्मिक संस्थाएं बनती हैं, वैसे समाज नहीं बनाया जा सकता। हिंदू-अंग्रेज़ जर्मन सभी बैठकर, विधान बनाकर, निर्णय लेकर समाज का रूप नहीं दिया गया। ये सभी समाज तो आप ही पैदा हुए हैं।

समाज चैतन्यमान इकाई है, जीवमान इकाई है। इसे ‘आर्गेनिक यूनिट’ भी कहते हैं। घोड़ा तथा पेड़ जोड़-तोड़कर नहीं बनाए जा सकते। मोटर अलग-अलग पुर्जो को मिलाकर बनाई जाती है। पेड़ के लिए सबसे पहले अंकुर होता है, बाद में पौधा, तना, शाखा और फल-फूल इसी प्रकार समाज पैदा होता है। वह जीवमान इकाई है। आप 1 कंपनी, क्लब, चोरों डाकुओं का गिरोह बना सकते हैं, पर हिंदू-अंग्रेज जर्मन जापानी समाज को किसी ने बनाया है, ऐसा नहीं कह सकते।

अपने हाथ से भोजन करता हूं, उसका मेरे शरीर पर परिणाम होता है। परंतु मैंने या किसी ने इस शरीर को बनाया, यह कहना ग़लत है। हमारा शरीर जीवमान है हमारी प्रत्येक क्रिया का हमारे शरीर पर असर होता है, लेकिन शरीर पैदा होता है, बनाया नहीं जाता।

समाज की मर्यादा होती है। मानवों का समाज इकाई नहीं है। जिले के लोग, पार्टी के लोग इकाई नहीं होते। इकाई तो हम प्राचीन काल की जातियों को कह सकते हैं। ये आजकल की जातियां- ब्राह्मण, ठाकुर, बनिए से भिन्न होती हैं। प्राचीन जाति समाज का पर्याय रूप मानी जाती थी। हिंदू एक जाति है, इसे भगवान् ने किसी उद्देश्य से हो बनाया है। सृष्टि की प्रत्येक वस्तु किसी-न-किसी उद्देश्य से बनी है। कोई वस्तु निरर्थक नहीं है। आजकल कल-कारखानों में ‘रेशनलाइजेशन’, यानी बेकारों की छंटनी होती है। भगवान् भी सृष्टि की प्रत्येक वस्तु का ‘रेशनलाइजेशन’ करता रहता है।

बालक अपने बक्से में अनेक वस्तुएं इकट्ठी करता है। उपयोगी और अनुपयोगी की कल्पना उसे नहीं होती। बड़ा होने पर उसमें चयन करने की योग्यता आती है और वह काम की चीज रखता अन्य फेंक देता है। इसे हम ‘लॉ ऑफ नेचुरल सेलेक्शन’ कहते हैं। ऐसे ही जातीय जीवन में भी होता है। जिस जाति की आवश्यकता नहीं होती है, वह जीवित रहती ही नहीं तो नष्ट हो जाती है। बेबीलोनिया, सीरिया, मिस्र आदि जातियां इसी प्रकार नष्ट हो गईं। जिसका काम बाक़ी है, वह जिंदा रहती है। जिसका काम समाप्त हो जाता है, वह मर जाता है।

भगवान् राम का नाम लेने से जो श्रद्धा और भक्ति के भाव पैदा होते हैं, वे केवल एसोसिएशन के कारण नहीं, वरन् एक इकाई होने के कारण होते हैं। पांव में कांटा लगते ही दिमाग को पता लग जाता है, क्योंकि हमारा संपूर्ण जीवन एक इकाई है, एक प्राण है। प्राण, जीवात्मा और आत्मा के अर्थ में अंतर है। लेकिन मोटे रूप में आत्मा, प्राण, जीव एक अर्थ में प्रयोग किए जाते हैं। जब तक शरीर में प्राण या जीव या आत्मा विद्यमान है, तब तक इसका अंग-प्रत्यंग सक्रिय रहता है। उसके समाप्त होने के बाद शरीर में कोई ताकत नहीं रहती।

समाज की भी ऐसी ही आत्मा होती है। उसे हम चिति कहते हैं। चिति का अर्थ चैतन्य होता है। एक जीवात्मा और दूसरी जीवात्मा में अंतर होता है। समाज में भी जिनकी एक चिति है। वह एक समाज है, जिनकी चिति अलग-अलग होती है वह समाज भी अलग-अलग होते हैं।

एक आत्मा या चितिवाला समाज जब एक भूमि पर रहता है तथा समाज और भूमि में माता-पुत्र का संबंध होता है। इसे हम राष्ट्र कहते हैं। राष्ट्र केवल करोड़ों लोगों का समूह मात्र नहीं। राष्ट्र तो पैदा होते हैं। राष्ट्र बनाए नहीं जाते।

हमारे देश में राष्ट्रीय एकता परिषद् बनी और विचार किया जाने लगा कि हमें अपने राष्ट्र को बनाना है। यह बात गलत है। राष्ट्र तो बना हुआ है, इसका विकास, उन्नति करने पर विचार किया जा सकता है।

बहुत तर्क हुआ और लोग किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सके। इतने में चीन का आक्रमण हुआ सारे देश में एकता की भावना प्रकट हुई। हिमालय हमारा है। इसकी रक्षा हमें करनी है यह नारा सारे देश में बुलंद हुआ। द्रविड़ स्थान की मांग करनेवाले लोग भी कहने लगे, हिमालय का अपमान नहीं होने देंगे। सारे देश में राष्ट्रीयता का ज्वार आया। फिर उसी परिषद् की फिर बैठक हुई तो लोगों ने कहा कि चीन के हमले ने सिद्ध कर दिया है कि हम एक राष्ट्र हैं और वह राष्ट्रीय एकता परिषद् भंग कर दी गई। अतः राष्ट्र बनाया नहीं जाता, वह तो स्वतः पैदा होता है।

राष्ट्र के साथ हमारा संबंध मातृवत् है। क्योंकि व्यक्ति और समाज का संबंध अन्योन्याश्रित होता है। इसी के लिए जीवन देना त्याग कहलाता है। बंदा वैरागी का जीवन देना, शहीद होना माना गया है। वहीं कई लोग कुतुब मीनार से कूदकर मरते हैं, उसे आत्महत्या कहा जाता है। एक राष्ट्र की आत्मा की रक्षा करने के लिए शहीद होता है और दूसरी आत्महत्या है। राष्ट्र की आत्मा का जीवन तथा जीवन पद्धति के साथ संबंध होता है। मां बच्चे को खिलाने में आनंद का अनुभव करती है। उसी प्रकार हमारा राष्ट्र के साथ संबंध है। इसके लिए सब कुछ करने में हमें आनंद होता है।

पागल मनुष्य कपड़े फेंक देता है तथा संन्यासी भी वस्त्र त्यागकर नंगा रहता है। पहले व्यक्ति को पागलखाने भेज दिया जाता है और दूसरे व्यक्ति के पांव छुए जाते हैं। पहले का समाज के साथ कोई संबंध नहीं रहता, दूसरा समाज सेवा का व्रत लिये होता है। राष्ट्र मानव जीवन की एक स्वाभाविक इकाई है। कई राष्ट्र मिलकर मानव जीवन बनता है।

आजकल नाप-तौल से ग्राम तथा मीटर की पद्धति चलती है। यह नाप-तौल की इकाई कहलाती है। इसी प्रकार राष्ट्र भी एक इकाई है। इसके छोटे टुकड़े जाति, धर्म हैं और वृहद भाग अनेक राष्ट्र हैं। राष्ट्र एक मौलिक इकाई होने से समाप्त नहीं किया जा सकता। वह प्राकृतिक रूप से समाप्त हो जाए तो बात दूसरी है। राष्ट्र को तोड़ने के प्रयास कइयों ने किए। इस्लाम ने कहा, संसार के मुसलमान एक हैं, पोप ने भी संसार में ईसाई धर्म के प्रचार की चेष्टा की, कम्युनिस्टों ने भी ‘दुनिया के मजदूरों एक हो’ का नारा लगाया और राष्ट्र-भावना समाप्त करने की चेष्टा की, लेकिन जब जर्मनी ने रूस पर आक्रमण किया, तब उसी रूस ने ‘फादरलैंड’ का नारा लगाया, तब युद्ध में विजय मिली। आज चीन और रूस का विरोध राष्ट्रवाद का विरोध है। दुनिया में राष्ट्रवाद की सत्ता ही प्रभावी रही है। दुनिया के सभी तत्त्वज्ञानों का उपयोग सब राष्ट्र अपने-अपने मतलब के लिए कर रहे हैं।

वास्तव में असली जोड़नेवाला तत्त्व राष्ट्र है। भिन्न-भिन्न राष्ट्र मिलकर मानव के सुख के लिए प्रयास कर सकते हैं। मैजिनी ने एक लेख में लिखा कि संगीत में सब वाद्य इकट्ठे हो जाते हैं। जैसे तबला, वीणा, मजीरा आदि। बैंड में भी बिगुल, ढोल, ड्रम आदि मिलकर एक साथ स्वर से स्वर मिलाकर बजते हैं। तभी ठीक लगता है। इसी प्रकार राष्ट्रीयता में भी एकरूपता लाई जाती है।

राष्ट्रों में एकरूपता के कारण मानव हित संपादित होता है। राष्ट्रीयता कभी मानवता विरोधी नहीं होती। जिस प्रकार जीभ दांतों के बीच रहती है, फिर भी दांतों द्वारा कटती नहीं, यदि ग़लती से कट भी जाती है तो दांत नहीं तोड़े जाते। इसी प्रकार चलते-चलते पैर नहीं टकराते, यदि कभी टकरा भी गए तो पांव को नहीं काटा जाता। राष्ट्र भी कभी-कभी गलती से आपस में टकरा जाते हैं और संघर्ष कर बैठते हैं, यह विकार के कारण है। यह स्वाभाविक अवस्था नहीं है। इस कारण राष्ट्र को ही समाप्त नहीं किया जा सकता। क्रमश:
-संघ शिक्षा वर्ग, बौद्धिक वर्ग: 27 मई, 1967