सामूहिकता का भाव

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गतांक से…

ब आज एक सज्जन का मैंने लेख पढ़ा। वह विदेशों में घूम करके आए। बड़े दुःखी हुए, कहने लगे, बड़ी मुश्किल है। क्यों, पूछने पर बोले, ‘हिंदुस्तान के बारे में सब जगह यह धारणा हो गई है कि भिखारियों का देश है।’ तो मैंने कहा, ‘भई, तुमने जाकर कोई भीख मांगी क्या?’ बोले कि नहीं, मैंने तो भीख नहीं मांगी, परंतु देश भीख मांग रहा है। अब देश भीख मांगता है तो उसको धक्का लगता है। देश में जब पाकिस्तान के साथ लड़ाई हुई और हमारी सेनाएं आगे बढ़ीं तो कोई अगर अमेरिका के अंदर भी था तो वह भी अपना सीना तानकर चलता था। उसको भी लगता था कि वाह वाह! हमारी जीत हो रही है और आपको भी लगता था यहां पर। हालांकि, मैं समझता हूं कि यहां पर आपमें से न कोई मोरचे पर था और न लड़ाई लड़ी। नारे-वारे जरूर लगाए होंगे थोड़े— बहुत, परंतु बाक़ी कुछ नहीं। परंतु मोरचे पर लड़नेवाले सिपाही के गौरव से अपने आपको गौरवान्वित अनुभव करते थे। इस प्रकार से हमारा गौरव उसके साथ है। राष्ट्र के गौरव में हमारा गौरव है और अलग-अलग इसका विचार किया तो समझ लीजिए कि फिर कभी गौरव होगा नहीं।

आदमी इस सामूहिक चीज़ को भूल जाता है और फिर अकेला-अकेला जब सोचने लगता है तो नुकसान हो जाता है। कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि या तो आदमी को समझ में न आए या आदमी को कहीं कुछ कमजोरी नज़र आ जाए तो फिर वह सोचता है कि बाक़ी को छोड़ो, अपने को क्या, इसकी चिंता करो। जब अपनी चिंता करने के लिए आदमी जाएगा तो समझ लीजिए, फिर अव्यवस्था हो जाएगी। जब हम सब सामूहिक रूप से अपना-अपना काम करके राष्ट्र की चिंता करेंगे तो सबकी व्यवस्था हो जाएगी। यह मूलभूत बात है कि हम सामूहिक रूप से विचार करें, व्यक्ति के नाते से नहीं और फिर समाज के नाते से विचार करने के बाद ही उसके लिए हमने जो कुछ किया, उस समाज के काम को पूरा करने के लिए किया। हमने जो कुछ किया, उसी में हमारी बहादुरी, उसी में हमारा गौरव और वास्तव में हमारा व्यक्तिगत बड़प्पन भी उसी में है। उसके अतिरिक्त नहीं।

उसके लिए अगर हमने जीवन लगाया, तो हमारा बड़प्पन। वैसे तो आख़िर को शरीर तो नश्वर है, हरेक का शरीर जाता है, परंतु भगतसिंह को सब लोग याद करते हैं, हकीकत राय को याद करते हैं, गुरुतेग बहादुर को याद करते हैं। आज बलिदानी महापुरुषों को याद करते हैं, क्यों? उनका तो शरीर गया। शरीर की रक्षा करनी हरेक चाहता है, किंतु फिर भी उन्होंने अपना शरीर गंवा दिया। उनके बलिदान को कोई आत्महत्या नहीं कहता। सभी कहते हैं कि भाई, उन्होंने बलिदान किया। इसलिए कोई कहे कि क्या उन्होंने आत्महत्या कर ली? आत्महत्या और बलिदान इसमें अगर अंतर है तो इतना ही कि जब शरीर देश के लिए दिया जाए, समाज के काम में लगाया जाए, राष्ट्र के लिए लगाया जाए, तो वह बलिदान है और उसको लोग याद करते हैं। उससे देश ऊपर उठता है। उससे समाज को ताकत मिलती है और इसके विपरीत अगर कोई भी काम किया जाए तो वह फिर समाज के लिए घातक हो जाता है। वह फिर नुकसान की चीत होती है। तो समाज का विचार, यह सदैव करके काम करना चाहिए। यह एक मूलभूत बात है।

हमारा आर्थिक विकास, हमारा राष्ट्रीय विकास, हमारा नैतिक विकास, हमारा आध्यात्मिक विकास सबका सब समाज के साथ जुड़ा हुआ है, यानी अाध्यात्मिक विकास भी कोई अपना जो है, हिमालय की गुफाओं में जाकर के योगाभ्यास कर ले और सोचें कि उसे मुक्ति मिल जाएगी, तो नहीं मिल सकती। अगर किसी को योगाभ्यास करना है तो योगाभ्यास कर ले, परंतु योगाभ्यास के द्वारा जो उसको सिद्धि प्राप्त हुई है, उस सिद्धि से अगर वह समाज को ऊंचा नहीं उठा सकता तो उसको मुक्ति नहीं मिल सकती। मुक्ति के विषय में अपने यहां पर कुछ लोगों की ग़लत धारणा हो गई कि मुक्ति कोई व्यक्तिगत चीज है। व्यक्तिगत मुक्ति नाम की कोई चीज नहीं। मुक्ति जो है, यह भी सामाजिक है, समष्टिगत है और उसी में से जब समाज मुक्त होगा, समाज ऊंचा उठेगा तो फिर व्यक्ति भी ऊंचा उठेगा, उसे मुक्ति मिलेगी।

समाज का काम करनेवाला ही सर्वोपरि है। केवल जिन्होंने अपना यानी समाज का काम छोड़ दिया, उन्होंने तो धर्म छोड़ दिया। लोकमान्य तिलक ने जो ‘गीता रहस्य में एक जगह लिखा, उन्होंने बताया शास्त्रों का पुराना श्लोक, सुभाषित उन्होंने उसमें दिया—

अपहाय वियज कर्म कृष्ण कृष्यति प्रतिवादिनाम्।
तेदामाः धर्म विनाश का धर्माधर्म जन्मपद धारय।।

अर्थात् जो अपना धर्म छोड़ करके और जो कृष्ण-कृष्ण चिल्लाते रहते हैं, वे धर्म का विनाश करनेवाले हैं और उसका कारण बताया कि स्वयं कृष्ण समाज का काम करनेवाला है। भगवान् ने धर्म की रक्षा करने के लिए, काम करने के लिए जन्म लिया। अगर केवल नाम स्मरण से सब कुछ हो जाता तो भगवान् जन्म

व्यक्तिगत मुक्ति नाम की कोई चीज नहीं। मुक्ति जो है, यह भी सामाजिक है, समष्टिगत है और उसी में से जब समाज मुक्त होगा, समाज ऊंचा उठेगा तो फिर व्यक्ति भी ऊंचा उठेगा, उसे मुक्ति मिलेगी। समाज का काम करनेवाला ही सर्वोपरि है

काहे को लेते, उनको जन्म लेने की आवश्यकता क्यों पड़ी? क्यों जन्म लिया तो धर्म की रक्षा करने के लिए। भगवान् के जितने भी अवतार हुए, किसी अवतार का यह वर्णन नहीं आता कि उन्होंने जाकर किसी गुह्य में बैठकर योगाभ्यास किया हो। भगवान् कृष्ण ने तो जीवन भर काम किया उन्होंने कर्म किया और संपूर्ण समाज को अपने सामने रखकर काम किया। यह उनके जीवन की विशेषता है।

समाज के लिए काम भगवान् का काम है और केवल अपने लिए काम वास्तव में यह शैतान का काम है।
तो भगवान् की भक्ति अगर कोई है, तो वह है राष्ट्र की भक्ति यानी समाज की भक्ति यही भगवान् का काम है। इसी में से व्यक्तिगत महत्ता प्राप्त होती है, व्यक्ति ऊंचा होता है। हमारा नाम हमारा सम्मान, हमारी सब चीजें इसमें अंतर्निहित हैं। महाभारत के युद्ध को देखें, तो एक बार उसमें बड़े मजे की चीज़ आई है। लोगों के सामने समस्या भी आकर खड़ी हो जाती है तो वहां पर यह कहा है कि धर्ममय बनो और कहा कि जहां धर्म है, वहीं जीत होती है। अब जीत किसकी हुई? तो पांडवों के साथ धर्म था, इसमें तो कोई दो मत नहीं हो सकते, क्योंकि पांडवों की जीत हुई, पर फिर एक बार सवाल आया और ऐसे ही पूछा कि भाई, ऐसी बात है कि पांडवों और कौरवों की जो लड़ाई हुई तो उस लड़ाई में कौरव पक्ष का ऐसा एक भी योद्धा नहीं है, जिसको किसी-न-किसी चालाकी से न मारा गया हो, हरेक को चालाकी से मारा गया। आप जानते हैं, भीष्म की मृत्यु कैसे हुई, शिखंडी को खड़ा करके; उसके पीछे से अर्जुन ने बाण चलाए और भीष्म ने अपने हथियार डाल दिए, तब जा करके भीष्म पितामह युद्ध से आहत होकर के शर-शय्या पर लेट गए। द्रोणाचार्य को मृत्यु कैसे हुई? युधिष्ठिर जैसे व्यक्ति ने झूठ बोला और कहा, ‘अश्वत्थामा हतो वा नरो व कुञ्जरो’ यानी अश्वत्थामा मारा गया। यह घोषणा कर दी तो बेचारे द्रोणाचार्य अपने पुत्र के शोक में व्याकुल होकर के युद्ध से विरक्त हो गए और तभी द्रोणाचार्य मारे गए। कर्ण मारा गया, जब उसके रथ का पहिया धंस गया था, उसको कर्ण निकालने लगा था। उसके ऊपर बाण चलाया गया। यहां कर्ण का वध हुआ। इसी तरह दुर्योधन भी मारा गया। दुर्योधन, जब गदा युद्ध हो रहा था, तब युद्ध के नियम के प्रतिकूल दुर्योधन की जंघा पर भीम के वार करने से मारा गया। नियम ऐसा है कि ‘बिलो दि बेल्ट’ प्रहार नहीं करना। यह नियम अपने यहां भी पुराना है। जंघा के ऊपर वार करना चाहिए, पर भीम ने जंघा पर ही वार किया और भगवान् कृष्ण ने उसको इशारा करके बताया कि जंघा पर वार करो। इस वार के कारण दुर्योधन मर गया। अब सवाल पैदा होता है कि यह तो सब छलछद्म है। पांडवों ने सब छलछद्म किया ही क्यों? युधिष्ठिर का झूठ बोलना धर्म है। वह जो जयद्रथ का वध किया और सारे आकाश में सूर्य छिप गया बादलों में। जयद्रथ को लगा कि सूर्य छिप गया है। वह बेचारा बाहर आया और बाद में वास्तव में सूर्य छिपा नहीं था, एकदम से फिर वह आया और उसके बाद जयद्रथ का वध कर दिया। यह कोई धर्म है? गदायुद्ध में जंघा पर वार करना कोई धर्म है? शिखंडी के पीछे खड़े होकर अर्जुन जैसा महारथी भीष्म के ऊपर बाण चलाए, यह धर्म है? लगता है कि यह तो सब अधर्म है।

यह अधर्म होने के बाद की जीत है और फिर भी हम कहते हैं—’यतो धर्मस्ततो ‘जयः।’ ऐसा लगता है कि महाभारतकार ने भी सबसे बड़ा धोखा दिया है। धर्म के नाम पर अधर्म के प्रचार का प्रयास किया है या फिर कहने में कहीं गलती की है। जाे विचार करें, एक बात पता लगेगी और वह यह कि कौरव पक्ष और पांडव पक्ष में अगर कोई बात एक थी तो वह यह कि कौरव पक्ष का हर व्यक्ति व्यक्तिवादी था, समष्टिवादी नहीं था। समाज का विचार करने के लिए तैयार नहीं था। वहां पर भीष्म पितामह इतने बड़े थे, परंतु ‘मैं’—मैंने प्रतिज्ञा की है कि शिखंडी के आने के बाद मैं बाण नहीं चलाऊंगा। और भाई, आप सेनापति हो, भीष्म पितामह की प्रतिज्ञा का महत्त्व है कि सेनापति के कर्तव्य का? दूसरी तरफ अर्जुन भी तो कह सकता था कि दुनिया में कोई मुझे क्या कहेगा? अर्जुन जैसा गांडीवधारी और वह शिखंडी की ओट में बाण चलाए, यह क्या अर्जुन के लिए शोभा देगा? अर्जुन के नाम पर कलंक है। परंतु कोई चिंता की बात नहीं है। अर्जुन ने समाज का, समष्टि का पूरे अपने पक्ष का विचार किया और भीष्म पितामह ने ‘मैं’ का विचार किया। उनके सामने व्यक्तिगत प्रतिज्ञा का महत्त्व था।

क्रमश:…
-शीत शिविर वर्ग, बौद्धिक वर्ग: फरवरी 4, 1968