सामूहिकता का भाव

| Published on:

पं. दीनदयाल उपाध्याय

गतांक से…

सी प्रकार जब द्रोणाचार्य यहां पर आए तो सीधी बात है कि द्रोणाचार्य को पुत्र का मोह था। भाई, अपने सेनापति को पुत्र का मोह, क्या वास्तव में मोह करने की जरूरत है? अगर सेनापति पुत्र का मोह लेकर चलेगा, तो क्या वह लड़ाई लड़ सकता है। उसको तो सब कुछ अपने समष्टि का विचार करना चाहिए, परंतु नहीं, वह अपने पुत्र के मोह को नहीं छोड़ सके, अरे इतने लोग मारे गए, तब दुःख नहीं हुआ, परंतु जब पुत्र मारा गया तो व्याकुल होकर शस्त्र छोड़ बैठे और दूसरी तरफ युधिष्ठिर जैसा व्यक्ति भी, जिसके बारे में कहते थे कि उन्होंने जीवन में कभी झूठ नहीं बोला और जिसके कारण कहते थे कि उनका रथ पृथ्वी से छह इंच ऊपर चलता था, परंतु फिर भी उन्हें इस बात की चिंता नहीं थी कि युधिष्ठिर का क्या होगा? दुनिया क्या कहेगी? उन्होंने कहा कि भाई, ठीक है, यह समष्टि का ही काम है, भगवान् कृष्ण का आदेश है। इसको करूंगा। उसे अपने नाम की चिंता नहीं थी, कीर्ति की चिंता नहीं थी। अपना नाम लेकर के और ‘नरो व कुंजरो’, झूठ ही क्यों न बोल दिया हो।

अब द्रोणाचार्य व्यक्तिवादी थे और युधिष्ठिर, यह समष्टिवादी धर्म, समाज का विचार, समूह का विचार करके चलते थे, व्यक्ति का विचार नहीं। वही बात कर्ण की है। आपको मालूम होगा कि कर्ण के पास कवच और कुंडल थे। वे कवच और कुंडल ऐसे थे कि जब तक वे उसके पास रहते, तो कोई उसका किसी भी प्रकार से अहित नहीं कर सकता था। सूर्य के दिए हुए कवच और कुंडलों के बारे में इंद्र को पता था। इंद्र ब्राह्मण का रूप धारण करके कर्ण के यहां गए। भगवान् सूर्य को यह बात पता लग गई कि यह होगा और इंद्र ऐसा करनेवाले हैं, कवच और कुंडल मांगनेवाले हैं तो उन्होंने कर्ण से कहा कि तू कुछ भी करना, लेकिन अपने कवच और कुंडल बिल्कुल मत देना। इतनी चेतावनी के बाद भी जब इंद्र वहां पहुंचे और उनसे कवच और कुंडल मांगे, तो कर्ण ने अपने कवच और कुंडल उनको दे दिए। क्योंकि उसको लगा कि मैं दानवीर हूं और मुझसे कोई मांगे और मैं न दूं? कर्ण दानवीर कर्ण तो हो गया, पर जिस पक्ष को ग्रहण किया था, जिस समाज का वह अंग बनकर खड़ा हुआ था, उसी का नहीं हुआ। वह भी व्यक्तिवादी रहा। इंद्र को भी सोचना चाहिए था कि मैं इंद्र जैसा व्यक्ति, देवताओं का राजा और ब्राह्मण का रूप धारण करके भीख मांगने गया, उन्होंने चिंता नहीं की। क्या यह काम धर्म का काम है?

कुंती के बारे में आपको मालूम है? कर्ण कुंती का बेटा था और जब वह कुंआरी थी, तब पैदा हुआ था और उस समय केवल लोकापवाद के डर से कि दुनिया क्या कहेगी, इसलिए उसने अपने पेट के लाड़ले को नदी के अंदर बहा दिया। यानी मां द्वारा अपने बच्चे को नदी के अंदर बहाना कितना बड़ा कठोर कर्म है, परंतु उसी कुंती ने बाद में जब अवसर आया, कर्ण के सामने जाकर यह बात कही कि तू मेरा बेटा है। अगर कुंती यह रहस्योद्घाटन न करती तो दुनिया को यह पता भी न होता कि वह कुंती का बेटा है। कुंती ने अपने माथे के ऊपर कालिख पोत ली, लेकिन केवल इसलिए कि एक सामूहिक ध्येय सामने रखा था, वह पूरा हो जाए। वह कर्ण से यह वचन लेकर आई थी कि वह अर्जुन को छोड़कर किसी पर बाण नहीं चलाएगा। यानी बाक़ी के सब अपने पुत्रों का अभयदान उसने मांग लिया। आप वही देखेंगे कि भगवान् कृष्ण ने भी प्रतिज्ञा की थी कि ‘मैं शस्त्र नहीं चलाऊंगा’, परंतु जब मौक़ा आ गया तब तो भीष्म के ऊपर वे भी शस्त्र लेकर दौड़ पड़े, यानी भगवान् ने अपनी प्रतिज्ञा की चिंता नहीं की; परंतु भीष्म ने प्रतिज्ञा की चिंता की ऐसा लगता है कि वहां जितने भी कौरव पक्ष में थे, वे बड़े-बड़े महारथी थे। इधर तो कुछ नहीं थे, उनके मुक़ाबले में यानी मैन टू मैन कहेंगे, एक-एक व्यक्ति का मुकाबला करेंगे तो इधर के पांडव पक्ष के एक-एक व्यक्ति से कौरव पक्ष का हर व्यक्ति ज्यादा निपुण था। ज्यादा वीर था। शूरता थी, सब कुछ थी, परंतु इतना होने के बाद भी अगर उनमें कुछ कमी थी, वह यह थी कि हर व्यक्ति था, वहां पर सब मिलकर कोई समूह नहीं था, समाज नहीं था, उनके अंदर कोई समष्टि भाव नहीं था। वे अलग-अलग थे, एक-एक करके हर कोई अपने नाम की चिंता करता था, कोई अपनी वीरता की चिंता करता था। किसी को अपने राज्य की चिंता नहीं थी। केवल दुर्योधन अपना राज्य चाहता था। इधर पांडव पक्ष में जितने थे, ये मिलकर एक थे और भगवान् कृष्ण को सबने नेता बनाया, बस उसकी जो आज्ञा है उसका पालन करेंगे, यह विश्वास था। विचार लेकर चले थे। किसी ने अपने नाम की चिंता नहीं की। किसी ने कहा कि भाई झूठ बोलना है, तो झूठ बोला, किसी ने कहा कि गदायुद्ध के नियमों का उल्लंघन करना है, उसने नियमों का उल्लंघन किया, किसी ने कहा कि तुम्हें जाकर कर्ण से भीख मांगनी है, तो उसने जाकर भीख मांगी, किसी ने कहा कि तुम्हें रहस्योद्घाटन करना है, तो रहस्योद्घाटन किया। खुद द्रौपदी भीष्म पितामह के पास गई और उसने जाकर पूछा कि तुम्हारी मृत्यु का रहस्य क्या है यह तो बताओ, भीष्म पितामह तो खुद बताने लगे कि अगर शिखंडी सामने आ जाएगा तो मैं बाण नहीं चलाऊंगा। मृत्यु का यह रहस्य द्रौपदी ने पूछा। अब इतना सब कुछ हुआ। और आप वहां पर देखेंगे, तो सब लोग एक गुट होकर काम करनेवाले समष्टिवादी थे।

वास्तव में समष्टिवाद ही धर्म है। राष्ट्रवाद धर्म है। समूह के लिए राष्ट्र के लिए काम करना, यह धर्म है। व्यक्ति के लिए और व्यक्ति का ही विचार करके काम करना, यह अधर्म है। मोटी सी व्याख्या है। एक ही व्याख्या है कि सच्चाई और झूठ का समष्टिभाव।

जिसको लोग सच कहते हैं, सामान्य जीवन के लिए यह ठीक है। रोज के जीवन में यदि कोई कहेंगे तो भगवान् कृष्ण ने झूठ बुलवाया या युधिष्ठिर ने झूठ बोला तो हम भी रोज झूठ बोलें, तो रोज झूठ बोलने से काम नहीं चलेगा। यह निर्णय राष्ट्र का विचार करके होगा। हरेक स्थिति का नियम है, लड़ाई होती है, लड़ाई में सिपाही गोली चलाकर नर हत्या करता है। यानी दुश्मन के ऊपर गोली चलाता है। अब आप यह कहेंगे कि वाह-वाह सिपाही आखिर रोज़ हिंसा करता है। हम भी हिंसा कर डालें तो? आपको मार डाले तो? मगर आप नहीं मार सकते हैं यानी सिपाही की हिंसा, वह हिंसा नहीं है। सिपाही की हिंसा और उसने कितने ज्यादा लोग मारे, इसके ऊपर तो उसको परमवीर चक्र प्रदान किया जाता है। अगर आप किसी को मार डालें तो आपको बिल्कुल फांसी की सजा हो जाएगी। दोनों में फर्क हो जाता है, यानी वह राष्ट्र के लिए करता है, इसलिए उसका नाम होता है। राष्ट्र के लिए करता है, इसलिए उसकी हिंसा हिंसा नहीं होती। वही काम अगर कोई राष्ट्र के विरोध में करेगा, तो वह फिर हिंसा मानी जाती है।

कौन सी चीज़ हिंसा है, कौन सी चीज़ हिंसा नहीं है। दुश्मन के यहां जाकर लोग जासूसी करते हैं। तरह-तरह की चीजें करते हैं। अनेक प्रकार के जिनको कुकर्म कहा जाता है, वे कर्म भी करते हैं, झूठ बोलते हैं, चोरी करके लाते हैं, परंतु दुश्मन के यहां से कोई चोर उनके रहस्य को चुराकर ले आया या फाइल चुराकर ले आया तो क्या उसको लोग चोर कहेंगे? कहेंगे कि तुमको तो इंडियन पीनल कोड के अनुसार सजा मिलनी चाहिए? क्योंकि तुम तो वहां से फाइल चुराकर लाए थे, ऐसे व्यक्ति का तो आप सम्मान करेंगे, परंतु अगर वही व्यक्ति यहां पर किसी की जेब में से उसकी चीज़ चुरा लेगा तो उसे दंड दिया जाएगा, यानी वह चोरी है और वहां से दुश्मन के यहां से चुराकर लाया, तो वह चोरी नहीं है। क्योंकि वह राष्ट्र के लिए है। एक राष्ट्र के लिए है और दूसरी नहीं।

सबसे बड़ा वैभव है राष्ट्र का वैभव। उसके लिए काम किया जाए, वही ताक़त है। ताक़त भी अगर कोई कहेंगे तो व्यक्तिगत रूप से काम, वह ताक़त नहीं, उससे आकांक्षा की पूर्ति नहीं होती, उसमें शक्ति भी नहीं है। जब हम सामूहिक रूप से काम करेंगे और इसलिए हमने अपनी प्रार्थना में दूसरी बात साथ-साथ में कही है कि संगठन कार्य शक्ति है। हमने भगवान् से यह नहीं कहा है कि हे भगवान्, हमें वैभव दे दीजिए। यह हमने नहीं कहा, बल्कि हमने अपने मन की कामना का उल्लेख किया है। हमने आशीर्वाद मांगा है। साथ ही, हमने यह बात कह दी है कि संगठित कार्य शक्ति निश्चित रूप से विजयशाली होती है। जहां पर संगठित कार्यशक्ति नहीं होगी, सामूहिक शक्ति नहीं होगी, वहां पर विजय नहीं मिलेगी, इस एक बात को समझ करके हम चलें।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वास्तव में संपूर्ण समाज में यही एक भाव पैदा करता है, राष्ट्रीयता का भाव। यह राष्ट्रीयता का भाव ऐसा है कि जिसके आधार पर बाक़ी की सब चीजें ठीक हो सकती हैं। यह एक भाव नहीं रहा तो बाक़ी की सब चीजें अच्छी से अच्छी चीजें भी बेकार हैं।

क्रमश:…
-शीत शिविर वर्ग, बौद्धिक वर्ग: फरवरी 4, 1968