सामूहिकता का भाव

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पं. दीनदयाल उपाध्याय

गतांक से…

पने देश के अंदर प्रजातंत्र है। अब प्रजातंत्र में आप जानते हैं कि देश के हर नागरिक को वोट देने का अधिकार है। अब जरा थोड़ा-सा विचार कर लीजिए, वोट का प्रयोग करने का हमने उसको अधिकार दे दिया। वोट प्रयोग वह कैसे करेगा, इसका विचार करना पड़ेगा न वोट का प्रयोग वह देश के खिलाफ़ भी तो कर सकता है, परंतु यह जानकर नहीं चले थे। वोट के प्रयोग में हमारे मतभेद बाक़ी बातों में हो सकते हैं, परंतु इस एक बात के बारे में हमारे में मतभेद नहीं है कि वह राष्ट्रीय जन है और इसलिए हमारा पूर्ण विश्वास है, इसलिए उसको वोट का अधिकार दिया। परंतु इस विश्वास को बनाए रखने की व्यवस्था यदि न हो रही, तो उलटा हो सकता है, यानी राष्ट्रीयता के बाद में प्रजातंत्र आता है, अगर राष्ट्रीयता कमजोर पड़ गई तो प्रजातंत्र कभी चल नहीं सकता। प्रजातंत्र घातक भी सिद्ध हो सकता है। यदि राष्ट्रीयता कमज़ोर पड़ गई तो सबकुछ घातक हो जाएगा। राष्ट्रीयता यदि ठीक है तो बाकी सबकुछ ठीक रहेगा।

दुनिया में अनेक वाद आए। इंग्लैंड में समाजवाद तो नहीं है, पूंजीवाद ही था। पूंजीवाद होने के बाद भी वह सफल हो गया। क्यों सफल हो गया, क्योंकि जो पहली बात थी, वह पहली बात वहां पर थी, वही राष्ट्रीयता का भाव और इसलिए ईस्ट इंडिया कंपनी उन्होंने बनाई। आप जानते हैं कि वह कोई सरकारी कंपनी नहीं थी, प्राइवेट लोगों की कंपनी थी। व्यापार करने के लिए कंपनी बनाई गई। वह जो ईस्ट इंडिया कंपनी यहां पर आई, यहां आकर राज कमाया, राज कमाकर अपने राष्ट्र को दिया। अंग्रेजों का राज हुआ। जब यहां अंग्रेज डॉक्टर आया, उस डॉक्टर ने यहां के मुग़ल बादशाह की लड़की का जब इलाज किया और इलाज करने के बाद जब उसको इनाम देने की बात कही तो उसने केवल यही मांगा कि हमारे लोगों को यहां बिना चुंगी दिए व्यापार करने का अधिकार मिलना चाहिए। उसने राष्ट्र की बात मांगी। बाकी का कोई विचार नहीं किया। राष्ट्र का जब विचार किया तो राष्ट्रीयता थी, इसलिए पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में से भी एक साम्राज्य का निर्माण कर पाए। सबकुछ उन्होंने कर लिया।

राष्ट्रीयता अगर रहेगी तो समाजवादी अर्थव्यवस्था में भी रूस इतना आगे बढ़ गया तो क्यों? केवल समाजवाद के कारण नहीं बढ़ा, वास्तव में वह राष्ट्रवाद के कारण बढ़ा और जब जरूरत पड़ी लड़ाई का मौक़ा आया, वहां तो उन्होंने बिल्कुल रूस के पुराने राष्ट्रवाद का नारा लगाया और बाक़ी की सब चीज़ों का सहारा लेकर आगे बढ़ा। आख़िर चाहे समाजवाद चाहिए चाहे पूंजीवाद चाहिए। वह काम कहां करेगा? कोई भी सरकारी नौकर समाजवाद में जो भी काम करेगा, वह अपने मतलब से नहीं करेगा, वह पब्लिक इंटरेस्ट में करेगा, वह देश के इंटरेस्ट में करेगा। इंटरेस्ट में तभी निर्णय लेगा, जबकि उसमें राष्ट्रभाव होगा, अगर उसके अंदर राष्ट्रवाद नहीं है तो क्यों देश के इंटरेस्ट में निर्णय लेगा? वह जहां से घूस मिलेगी, उसके इंटरेस्ट में निर्णय लेगा, वह अपने इंटरेस्ट में निर्णय लेगा और आज जितनी भी गड़बड़ होती है, वह इसलिए होती है। पूंजीवादी व्यक्ति अगर उसके सामने राष्ट्रवाद है तो वह भी देश के हित में निर्णय लेगा और नहीं है तो अपने मतलब से लेगा। प्रजातंत्र में आख़िर को चुनकर के कोई भी व्यक्ति जाता है तो वह छोटे से बड़ा मिनिस्टर बनकर बैठ जाता है। जो मिनिस्टर बनकर बैठ जाता है तो उसके हाथ में सारे देश का भाग्य आ जाता है और उसके अंदर अगर राष्ट्रीयता है तो उस सारे अपने अधिकार का उपयोग है, वह राष्ट्र का भला करने के लिए करेगा और अगर उसके अंदर राष्ट्रीयता नहीं है तो अपने अधिकार का उपयोग अपने घर भरने के लिए करेगा।

जो वोट देनेवाला है, उस वोट देनेवाले के सामने राष्ट्रीयता का विचार है तो उस वोट का उपयोग वह राष्ट्र का विचार करके ठीक करेगा। राष्ट्रीयता का विचार नहीं है, तो वह वोट का उपयोग दोस्त को और किसी जातिवाले को या कोई भी विचार नहीं आया तो जो उसको चार रुपए दे देगा, उसको वोट दे देगा, यानी वोट का अधिकार, जो इतना महत्त्व का अधिकार है, नागरिकता के नाते से जो अधिकार प्राप्त होता है, उस देश में पैदा होने के नाते, इस राष्ट्र के हम एक घटक हैं, इस नाते से प्राप्त होता है। उस अधिकार का इस प्रकार दुरुपयोग हो जाता है, यदि राष्ट्रीयता का भाव न रहा तो यह एक मूल चीज़ है।

दुर्भाग्य का विषय इतना ही है कि इस देश में ऐसे लोग हैं कि जो इस मूल बात का विचार ही नहीं करते। एक साधारण सी बात लगती है, जैसे सांस लेना, सभी सांस लेते हैं। परंतु ढंग से सांस लेना इसको भी सिखाने की जरूरत पड़ती है और नहीं तो गलत सांसें लेते-लेते और बहुत बार गड़बड़ी हो जाती है। प्राणायाम, योगाभ्यास की इसलिए जरूरत होती है कि ठीक तरीके से सांस ले सकें। गहरी सांस लेना, ढंग से सांस लेना, बहुत लोग नहीं जानते कि सांस कैसे ली जाती है। इसी तरह से रोटी खाना, सभी खाते हैं, परंतु किस प्रकार से भोजन करना, कौन सा भोजन करना, इसके लिए भी कुछ न कुछ सीखना पड़ता है। तो बहुत सी चीजें, जिनको साधारणतया लोग समझते हैं कि इसमें क्या है, यह तो हरेक को आती ही है, परंतु वही चीज अगर नहीं सिखाई गई तो वह फिर बिगड़ जाती है। बिगड़ जाने के बाद कभी-कभी ऐसा मौक़ा आ जाता है कि प्राण संकट में पड़ जाते हैं। बिल्कुल साधारण सी चीज है, हवा हरेक को मिलती है, उसकी कोई कीमत नहीं पहचानता। मौक़ा पड़ा तो आदमी कहेगा कि रोटी सबसे महत्त्वपूर्ण है, परंतु अगर किसी से कह दिया जाए कि अच्छी रोटी ज्यादा महत्त्व की है, रोटी मेरी ले लो, पर पानी नहीं पीने देंगे। जरा विचार करो, तो आपको लगेगा कि नहीं भई, रोटी से ज्यादा महत्त्व पानी का है। यानी एक-आध दिन आपको रोटी नहीं मिली तो गुजारा हो जाएगा, अगर पानी नहीं मिला तो दो घंटे भी चलाना मुश्किल है। एक दिन भी खींचना बड़ा मुश्किल हो जाता है। निर्जला एकादशी को पानी के बिना नहीं चलेगा। पानी, हवा न मिले तो कुछ मिनटों में ही मामला ठंडा हो जाएगा, उसके बगैर तो आगे चल ही नहीं सकते, जो जितनी सस्ती और सामान्य सी चीज़ नज़र आती है, वह उतनी ही ज्यादा महत्त्व की होती है। इसी प्रकार से जो यह राष्ट्र है, राष्ट्र का विचार, समाज के लिए विचार लोग समझते हैं, बड़ी सामान्य सी चीज़ है और इसको ग्रहित लेकर चलते हैं। ग्रहित लेकर चलते होंगे, परंतु महत्त्व की है।

संस्कार एक मन के अंदर होना चाहिए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जिस आधार पर, जिसके लिए बना, वह इस बात को लेकर चला कि भाई, अब अपना वैभव चाहते हो तो इस बात को समझो कि हमारा राष्ट्र

राष्ट्र को भूल गए तो बाक़ी के किसी व्यवसाय का कोई अर्थ नहीं, राष्ट्र को भूल गए तो विद्या, बुद्धि सब किसी की कोई क़ीमत नहीं है। जब राष्ट्र का स्मरण होगा तो सबका मूल्य बढ़ जाता है और नहीं तो सब शून्य के बराबर है

इसका हमें विचार करना है। उसका संस्कार अपने मन पर लाओ और बाकी के जीवन के जितने भी काम हैं, वे सब काम राष्ट्र के नाते से, हमारे लिए सहायक हों, और उसमें किसी भी प्रकार का भेदभाव न हो।

प्रकृति भेदभावमय होती हैं, भेद पैदा करती है। अनेक प्रकार के भेद आ जाते हैं। कहते हैं कि अपने यहां की जो पुरानी व्यवस्था थी, उसमें जाति व्यवस्था आ गई, यानी कोई एक धंधा करता था, कोई दूसरा धंधा करता था। तेल निकालनेवाले तेली हो गए, चमड़े का काम करनेवाले चमार हो गए, लकड़ी का काम करनेवाले बढ़ई हो गए और साग-सब्जी का काम करनेवाले काछी हो गए और बगीचे में काम करनेवाले माली हो गए, आखिर को ये सारे व्यवसाय हैं। पढ़ाने लिखानेवाले जो हैं, वे ब्राह्मण हो गए। यह सारे वर्ग बन गए, आज भी हैं। अपने यहां उस समय सामान्य रूप से बाप का काम बेटा करता था। आज भी बहुत से करते हैं और इसके कारण जाति जन्मना बन गई। परंतु अब उसके कारण भेद हो गए। भेद बनने के बाद भी एक-दूसरे से अलग तो नहीं हो गए। काम तो सब मिलकर के ही करेंगे। अतः अगर थोड़ा सा विचार करें कि तेली और बढ़ई- इनमें लड़ाई हो जाए तो कोल्हू का क्या होगा? बढ़ई जब तक कोल्हू बनाकर नहीं देगा, तब तक तेल नहीं निकाला जा सकता और शायद तेली को तेल नहीं मिलेगा। तब तो शायद बढ़ई के भी बहुत से काम रुक जाएंगे। आखिर को उसको भी कभी न कभी गाड़ी में तेल पचासों बार डालना ही पड़ता है। हरेक का काम है। लोहार है और कुल्हाड़ी, फिर दोनों का कितना संबंध है, दोनों का मेल बैठना ही चाहिए, बिना उसके तो काम नहीं चलेगा। तो ये सारी चीजें एक-दूसरे की कंपलीमेंट्री हैं, एक-दूसरे के पूरक हैं। यह भाव तभी रहता है जब एक विशाल समाज का प्रश्न अपने सामने होगा। वह प्रश्न हट गया तो फिर गड़बड़ हो जाती है और आज दुर्भाग्य से कुछ ऐसा हो रहा है कि यह पूरकता लोगों के दिमाग से हट रही है।

अपना-अपना भेद दिखाई देता है और अपने प्रांत के नाते से बात दिखाई देती है। कहीं अपनी जाति की दिखाई देती है। कहीं वर्ण की दिखाई देती है। प्रजातंत्र में राजनीतिक दल होते हैं, तो यह राजनीतिक दल की बात दिखाई देती है। बाक़ी की सारी बातें भूल जाते हैं। यानी कि राष्ट्र को भूल जाते हैं। राष्ट्र का विस्मरण हो गया तो कोई राजनीतिक दल नहीं चल सकता, राजनीति है काहे के लिए आखिर राष्ट्र के लिए राजनीति है, कोई व्यापारी राष्ट्र को भूल गया तो व्यापार नहीं चल सकता। राष्ट्र को भूल गए तो बाक़ी के किसी व्यवसाय का कोई अर्थ नहीं, राष्ट्र को भूल गए तो विद्या, बुद्धि सब किसी की कोई क़ीमत नहीं है। जब राष्ट्र का स्मरण होगा तो सबका मूल्य बढ़ जाता है और नहीं तो सब शून्य के बराबर है।

क्रमश:…
-शीत शिविर वर्ग, बौद्धिक वर्ग: फरवरी 4, 1968