एकात्मता की चिर साधना

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-दीनदयाल उपाध्याय

भारत  की एकता और अखंडता की साधना हमने सदा से की है। हमारे राष्ट्र का इतिहास इस साधना का ही इतिहास है। ‘पृथिव्या समुद्र पर्यन्ताया एक राष्ट्र’ का उद्घोषण करने वाली ऋषियों की मंत्रपूत वाणी की पृष्ठभूमि में ‘नील सिंधु जल धौत चरणातल’ भारत की एकता का साक्षात्कार ही था। हिम किरीटिनी एवं सिंधुवलयांकित माता का दर्शन करके ही आदिकवि ने माता का गौरव बढ़ाने वाले सपूत मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की गुण गरिमा का बखान किया तो यही कहा ‘‘समुद्र इव गाम्भीर्येण धैर्येणा हिमवानिव।’’ हिमालय और समुद्र की मर्यादाएं ही राष्ट्रपुरुष राम के चरित्र की मर्यादाएं बन गईं। कुरुक्षेत्र की सीमाओं में आबद्ध महर्षि वेदव्यास का ‘जय’ काव्य जब तक महाभारत बनकर कैलास से कन्याकुमारी और गांधार से कामरूप तक विस्तीर्ण देश का दर्शन नहीं करा सका, वह हमारे जीवन का केंद्र नहीं बन पाया। अपने संपूर्ण जीवन का साक्षात्कार करने पर ही कवि ने गर्वोक्ति की ‘यद्भारते तद्भारते यत्र भारते तत्र भारते।’ कथन सत्य है, कारण महाभारत में जिस प्रदेश का वर्णन किया है, भारत का न्याय वहीं तक रहा है। कविकुल कमल दिवाकर कालिदास की कविता जब यक्ष के हृदय की वेदना को लेकर अवतीर्ण हुई, तो उसे रामगिरि से लेकर अलकापुरी तक भारत का गुण-गान किए बिना शांति नहीं मिली। रघुवंश की दिग्विजय के वर्णन में उन्होंने संपूर्ण देश का दिग्दर्शन करा दिया है। उनके हृदय की यह एकात्मानुभूति ही उन्हें महाकवि बना सकी। पुराणों में जिस भारत का वर्णन मिलता है, वह आसिंधु-सिंधुपर्यंत अखंड भारत ही है। वहां भारतवर्ष की व्याख्या इन शब्दों में की गई है-

उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रैश्चैव दक्षिणम्।
वर्षम् तद्भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः।।

निश्चित ही उपर्युक्त व्याख्या संपूर्ण भारत का एकात्मक चित्र उत्पन्न कर देती है।

बार्हस्पत्य अर्थशास्त्र में ‘भारतः खण्डः’ सूत्र की अनुवृत्ति में आने वाले निम्न सूत्र जिस भारत के विस्तार का वर्णन करते हैं, वह अखंड भारत ही है।

सहस्रयोजना बदरिका-सेत्वन्ता।।
द्वारकादि-पुरुषोत्तम सालग्रामान्ता सप्तशतयोजना।।
तत्रापि रैवतक-विन्ध्य-सह्य-महेन्द्र-मलय-श्रीपर्वत-
परियात्रा सप्त कुलाचलाः।।
गंगा-सरस्वती-कालिन्दी-गोदावरी-कावेरी-
ताम्रपर्णी-कृतमालाः कुलनद्यश्च।।

अर्थात् बद्री-केदार से लेकर रामेश्वर तक 1000 योजन लंबा तथा द्वारका से लेकर पुरी तक 700 योजन चौड़ा देश भारतवर्ष है। रैवतकादि मुख्य 7 पर्वत तथा गंगा, सरस्वती आदि मुख्य 7 नदियां हैं।

भारत में उत्पन्न एवं प्रचलित सभी मतों और संप्रदायों के सम्मुख भी भारत की एकता का चित्र रहा है। उनके तीर्थ-स्थान भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक फैले हुए हैं। उनकी यात्रा करने वाला सहज ही भारत की परिक्रमा कर लेता है। दक्ष प्रजापति के यज्ञ की वेदी में अपने शरीर की आहुति देने पर सती के शव को अपने कंधे पर डाले भगवान् शिव ने संपूर्ण भारत की यात्रा की। जहां-जहां सती के अंग गिरे, वहीं शक्ति का पीठ बन गया। दूसरे जन्म मंे भी सती ने पार्वती के रूप में ‘कोटि जनम लौं रगर हमारी बरहुं शम्भु नतु रहहुं कुंआरी’ की प्रतिज्ञा कर अपनी तपस्या के लिए हिमालय की गुफाएं अथवा कैलास का गिरिशृंग नहीं चुना, बल्कि भारत के दक्षिणतम बिंदु कन्याकुमारी को ही उपयुक्त समझा। कन्याकुमरी में स्थित कुमारी पार्वती की तपस्या तथा कैलासवासी भगवान् शिव की साधना से शिव-पार्वती का विवाह दक्षिण और उत्तर के मिलन की पवित्र भूमिका पर घटित आख्यायिका के रूप में सहज समझा जा सकता है।

सूर्य के 12 मंदिर, गाणपत्यों के अष्ट विनायक, शैवों के बारह ज्योतिर्लिंग, शाक्तों के 51 पीठ तथा वैष्णवों के अगणित तीर्थक्षेत्र संपूर्ण भारत में बिखरे पड़े हैं। बौद्ध, जैन, सिक्ख तथा विभिन्न संतों के आचार्य मानकर चलने वाले छोटे-मोटे पंथ भी एकदेशीय न होकर सर्वदेशीय दृष्टिकोण लेकर चलते हैं तथा भारत का कण-कण उनके लिए वंदनीय है। भगवान् शंकराचार्य ने तो सभी मतों का समन्वय करते हुए भारत के चारों कोनों पर ऐसे चार क्षेत्रों का विधान किया, जो सबके लिए समान रूप से पूज्य बन गए। हिमाचल के हिमाच्छादित शिखर पर अवस्थित बद्रीनाथ की यात्रा सब प्रांतों और संप्रदायों के लोगों के जीवन की कामना रही है। महोदधि और रत्नाकर दोनों ही जहां माता के चरणों का प्रक्षालन करते हैं, वहां भारत के कोने-कोने से जाकर नित्य प्रति भक्तगण श्री रामेश्वरम् के शिवलिंग पर गंगोत्तरी का जल चढ़ा उत्तर-दक्षिण की एकता के अजस्र स्रोत में अवगाहन करते हुए ‘शिव’ की आराधना करते हैं। ‘जगन्नाथ का भात, पूछो जात न पांत’ कहकर जिस प्रेम और श्रद्धा से श्रीजगन्नाथ जी का प्रसाद पाते हैं, वह तो राष्ट्रीय संगठन के लिए संजीवनी काम करता रहा है। प्रोग्ज्योतिष के सम्राट् नरकासुर का वध करके 16000 राजकुमारियों को मुक्त करने वाले भगवान् वासुदेव कृष्ण की राजधानी द्वारकापुरी भी हमारे प्रमुख तीर्थों में से हैं। इसी प्रकार पुराणकारों ने जब कहा-

अयोध्या मथुरा माया काशी कांचि अवन्तिका।
पुरा द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिकाः।।

तब वे भारतीय अखंडता का ही विधान कर रहे थे। ये सातों पुरियां भारतीय राष्ट्र के मर्मस्थल, उसकी सभ्यता और संस्कृति की केन्द्र हैं। एक-एक के साथ अतीत की इतनी घटनाओं का संबंध है कि उनकी स्मृतिमात्र से अपना संपूर्ण इतिहास चलचित्र की भांति आंखों से गुजर जाता है।

भारतीय एकता का साक्षात्कार कराने के लिए तीर्थ-यात्राओं का ही नहीं, अपितु अन्य और भी विधान किए गए। अनेक छोटे-मोटे मेलों के अतिरिक्त हरिद्वार, प्रयाग, उज्जयिनी और नासिक इन चार प्रमुख स्थानों पर कुंभ का मेला लगता है, जिसमें भारत के कोने-कोने से साधु, संत और यात्री आते हैं। इन्हें एक प्रकार का राष्ट्रीय सम्मेलन कहा जा सकता है, जहां भारत की अखंडता राष्ट्रीयता का दर्शन होता है और यह अवसर प्रति तीसरे वर्ष आता है। हमारे दैनिक आचरण में भी राष्ट्रीयता के पोषक संस्कारों का समावेश किया गया है। प्रातः उठकर भूमि पर चरण रखते ही अत्यंत विनीत भाव से हिंदू पृथ्वी माता को नमस्कार करता हुआ कहता है-

समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डले।
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे।।

वहीं संपूर्ण भारत का चित्र है। प्रातः स्मरण में जिन महापुरुषों का पुण्य स्मरण किया जाता है वे भारत के किसी प्रांत-विशेष के नहीं अपितु संपूर्ण भारत के हैं। स्नान के समय जब जल को अभिमंत्रित करते हैं तो

गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति।
नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु।।

के मंत्र से भारत की सभी पवित्र नदियों का आह्वान करते हैं। इन नदियों के समान ही 7 वन, 7 पर्वत और 4 सरोवरों को, जो संपूर्ण भारत में फैले हुए हैं, अपने अपने जीवन में महत्वपूर्ण स्थान दिया है।

हमारे नीतिकार एवं शास्त्रकार भी संपूर्ण भारत की एकता का अनुभव करके ही शास्त्रों की रचना करते रहे हैं। हमारे जीवन में बाह्य भिन्नताएं चाहे कितनी ही दिखती हों, किंतु हमारी जीवन की दृष्टि एक ही है। यह दृष्टिकोण की एकता समान संस्कारों से उत्पन्न हुई है। गर्भाधान से लेकर दाह संस्कार तक सभी संस्कार सब हिंदुओं के लिए समान रूप से निहित हैं। गंगोदक सभी के लिए मोक्षदाता है एवं मृत्यु के पश्चात् हमारी अस्थियां गंगाजी में ही विसर्जित की जाती हैं। हिंदूमात्र के संस्कार होते हैं। संख्या और संकल्प में हम सदैव संपूर्ण भारतभूमि का ध्यान करते हैं।

मनु से लेकर बृहस्पति तक बनाई हुई स्मृतियों में किसी विशेष प्रदेश के अथवा विशेष वर्ग के व्यक्तियों के जीवन संबंध में विधान नहीं है अपितु सभी भारतीयेां के संबंध में समान नियमों का आदेश है। अर्थशास्त्र के रचयिता कौटिल्यपर्यंत सभी विद्वानों ने संपूर्ण भारत की एकता का विचार करते हुए एकसूत्रीय शासन का विधान किया है। आयुर्वेद ने ‘यस्य देशस्य यो जन्तुः तज्जं तस्यौषधिः’ के सिद्धांत का ध्यान में रखते हुए भारत के निवासियों, उनके रोग एवं भारत की वनस्पतियाें का विचार किया है। भारत बाह्य किसी भी देश के रोग और वनस्पतियों का न तो उसमें विचार है और न देशांतर्गत किसी प्रदेश की वनस्पतियों को उसमें छोड़ा गया है। भूमि-व्यवस्था, ग्राम पंचायतें और श्रेणी संपूर्ण देश में एक ही रूप में चलते थे। यातायात के लिए विभिन्न स्वरूप के अनेक वाहन होते हुए भी सिंधु और बंगाल, कश्मीर और केरल सभी प्रांतों में प्रयुक्त वाहनों के धुरों की लंबाई एक ही चली आ रही है। राजस्व की व्यवस्था भी संपूर्ण भारत में एक ही रही है।

भारतीय एकता की आराधना हमारी राजनीति का भी विषय रही है। संपूर्ण भारत को एक शासन-सूत्र में बांधकर चातुरंत साम्राज्य निर्माण करने की अभिलाषा हमारे यहां के राजाओं की अत्यंत पवित्र महत्वाकांक्षा रही है। राजाओं के संधि, विग्रह और अभियान सबका उद्देश्य भारत की एक-सूत्रता की रक्षा ही रहा है। ‘अश्वमेध’ और ‘राजसूय’ यज्ञों से इसी उद्देश्य की सिद्धि हुई है। रघु की दिग्विजय से जो एकछत्र साम्राज्य निर्माण हुआ, उसके शिथिल हो जाने पर ही भगवान् राम का अवतार हुआ। उनका अवतार कार्य उत्तर और दक्षिण के सभी प्रदेशों को एक शासन-सूत्र में गूंथकर पूर्ण हुआ। अश्वमेध यज्ञ भगवान् राम के कार्यों मंे सुमेरु के समान है। भगवान् कृष्ण ने भी धर्मराज युधिष्ठिर की अध्यक्षता में जिस चातुरंत साम्राज्य का निर्माण किया, वह भारत की अंखडता को बनाए रखने का महान् प्रयत्न था। भारत के पश्चिमोत्तर द्वार को जैसे ही सिकंदर ने खटखटाया, वैसे ही आचार्य चाणक्य ने ‘न त्वेवार्यस्य दासभावः’ की घाेषणा की तथा चंद्रगुप्त मौर्य ने यूनानी को ही खदेड़कर बाहर ही नहीं किया, अपितु छोटे-मोटे गणराज्यों को समाप्त कर एक सुदृढ़ एवं शक्तिशाली साम्राज्य की नींव भी डाली। भारत की एकता का यह प्रबल प्रमाण है कि जब-जब उत्तर में विदेशियों का आघात हुआ, तो केवल उत्तर को ही नहीं, दक्षिण को भी मर्मांतक पीड़ा पहुंची। सिर पर चोट लगते ही जैसे संपूर्ण शरीर की शक्तियां प्रतिकार करने को उद्यत हो जाती हैं, उसी प्रकार शकों और हूणों के आक्रमण का प्रतिरोध दक्षिण से उठने वाली शकारि विक्रमादित्य और यशोधर्मन की शक्तियों ने किया। मुगलों के साम्राज्य को मिटाने का सत्संकल्प दक्षिण में छत्रपति शिवाजी महाराज ने किया। आधुनिक युग के राजनीतिक नेताओं के नामोउल्लेख की आवश्यकता नहीं; उनका कार्यक्षेत्र भी अखिल भारतीय ही रहा। इस प्रकार सुख और दुःख जय और पराजय, वैभव और पराभ्पव में जो एकता और अभिन्नता प्रकट की गई, उसने हमारे राष्ट्र को एक जीवन के अछेद्य सूत्र में संगठित किया है।

जीवन के सभी क्षेत्रों में प्राप्त एकता का अनुभूति-क्षेत्र केवल भौतिक जगत् तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि हमारी आध्यात्मिक चेता को भी व्याप्त कर गया। हमारे देश, राष्ट्र एवं संस्कृति की एकता हमारी आत्मा के समान ही चैतन्ययुक्त है। इस आत्मा को खंडित नहीं किया जा सकता।
(साभारः दीनदयाल उपाध्याय संपूर्ण वाङ्मय खंड 2)