लोकसभा में विरोधी पक्ष के प्रमुख नेता डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी

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दीनदयाल उपाध्याय

भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष और लोकसभा में विरोधी पक्ष के प्रमुख नेता डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी अपनी वाग्मिता और विद्वत्ता और महान् व्यक्तित्व के कारण लोकप्रिय हैं।

‘नाभिषेको न संस्कार:
सिंहस्य क्रियते मृगै:।
विक्रमोर्जितराज्यस्य
स्वयमेव मृगेन्द्रता।।’
(नारायण पंडित हितोपदेश 2/19)

सिंह का कभी राज्याभिषेक नहीं होता, अपितु अपने पराक्रम से वह स्वत: ही ‘मृगेंद्र’ पद को प्राप्त करता है। कवि की यह उक्ति वन के प्राणियों के लिए ही नहीं, मानव के व्यवहार में भी चरितार्थ होती है। संसद में डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की स्थिति इसका उदाहरण है। अध्यक्ष मावलंकर द्वारा बनाए गए नियमों के अनुसार श्यामाप्रसाद चाहे विरोधी दल के नेता न स्वीकृत हों, किंतु संसद के सभी सदस्य, यहाँ तक कि उनके विरोधी दल के सदस्य भी उन्हें संसद के विरोधी दल का ही नहीं, अपितु अपना नेता भी मानते हैं और वैसे तो संसद में प्रतिदिन छह घंटे भाषण ही होते रहते हैं। और अखबारों में अनेक सदस्यों के भाषण भी छपते हैं, किंतु एक ही व्यक्ति ऐसा है, जिसका भाषण सुनने के लिए प्रत्येक सदस्य लालायित रहता है। क्या विरोधी दल के और क्या कांग्रेस के, सभी सदस्य उस समय अपनी सीटों पर दिखाई देंगे, जब श्यामाप्रसाद मुखर्जी अपना भाषण प्रारंभ करते हैं। दर्शकों मे गैलरी खचाखच भरी रहती है तथा प्रेस रिपोर्टर, चाहे वे भाषण को अखबारों में न छापें, एक-एक शब्द को लेखनीबद्ध करने के लिए आतुर रहते हैं। कारण, श्यामाप्रसाद मुखर्जी के शब्दों में वकील का तर्क ही नहीं, कवि का हृदय भी रहता है। स्वर्ग से गिरने वाली ओस की बूँदों के समान कभी उनके शब्द सरलता से हृदयंगम होते जाते हैं, तो कभी उनकी दहाड़ से विरोधियों के छक्के छूट जाते हैं। कांग्रेस के लोग उनके शब्दों की क़ीमत करते हैं, क्योंकि वे उनके हृदय की भाषा में बोलते हैं। अपने जिन भावों को नेहरूजी की भृकुटी के भय से तथा अनुशासन के ताले के कारण वे प्रकट नहीं कर पाते, उन्हें जब वे डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के भाषण में पाते हैं तो बरबस उनका हृदय उनकी ओर खिंच आता है। एकांत में वे उनकी सराहना करते हैं, पर संसद में आत्मप्रवंचना के अलावा और सहारा ही क्या हैं।

डॉ. मुखर्जी कभी विरोध के लिए विरोध, अथवा बोलने के लिए बोलने की नीति में विश्वास नहीं करते। वे अपने विषय के साथ जब एकात्मता का अनुभव करते हैं, तब बोलते हैं और वही बोलते हैं, जिसे वे अनुभव करते हैं। हृदय की सच्ची अनुभूति ही तो काव्य है। इस काव्य के अक्षर स्वत: अभिमंत्रित हो जाते हैं। उनका असर केवल संसद में ही नहीं बल्कि संसद के बाहर कोटि-कोटि हृदयों तक पहुँचता है। देश की भूखी, नंगी, पीड़ित, त्रस्त और अज्ञानांधकार में आवृत्त जनता उन्हें जाने या न जाने, उनके कानों तक उनका नाम चाहे न पहुँचा हो, किंतु उनकी मूक भावनाओं को वाणी का परिधान डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ही पहनाते हैं।

कम्युनिस्टों के समान वे मजमेबाजो की सस्ती वक्तृत्व कला में विश्वास नहीं करते और न संसदीय शिष्टाचार की अवहेलना का बेसुरा राग अलापना ही उन्हें पसंद है। संसद ने यदि भाषणों को निश्चित समय की सीमा में बाँधा हो तो न तो उन्होंने सीमोल्लंघन का कभी प्रयत्न किया और न कोई ऐसा विषय ही छूटा, जिसे वे प्रस्तुत करना चाहते हों और न कर पाए हों। ‘मात्रालाघवेन पुत्रोत्सव मिति वैयाकरण: मन्यनो’ के अनुसार उन्होंने भाषण को प्रयत्नपूर्वक कभी संक्षिप्त भले न किया हो, किंतु गागर में सागर भर देने की कला सिद्ध है और फिर सागर के सभी रत्न भी उस गागर में समा जाते हैं।

डॉ. मुखर्जी की आलोचना रचनात्मक होती है। उनके सुझाव विचारपूर्ण होते हैं। किंतु उनका व्यंग्य भी हृदय को विदीर्ण करने वाला होता है। यद्यपि उसमें शत्रु के प्रति विद्वेष का भाव नहीं रहता। उनके एक-एक शब्द में सरकार को चुनौती रहती है। उनके तथ्यों को यदि किसी ने चुनौती दी तो वे कभी बगलें नहीं झांकते और न भविष्य में प्रमाण प्रस्तुत कर अपनी बात सिद्ध करने का वादा करते हैं। वे इन प्रमाणों को पहले से अपने पास तैयार रखते हैं तथा आवश्यकता हुई तो प्रस्तुत भी कर देते हैं। हाल ही में कश्मीर के संबंध में भाषण करते हुए शेख अब्दुल्ला की सांप्रदायिक नीति की वे निंदा कर रहे थे तो कश्मीर के एक सदस्य ने टोक दिया कि वे कैसे कह सकते हैं कि कश्मीर में सांप्रदायिकता ज़िंदा है। डॉ. मुखर्जी ने तत्काल जेब से एक पुस्तिका निकाली, जो कश्मीर सरकार की छापी हुई थी और उसके उद्धरणों से अपनी उक्ति की प्रामाणिकता सिद्ध की।

हाज़िरजवाबी भी उनका ऐसा गुण है, जो मौक़े पर उनके बड़े काम आता है। डॉ. मुखर्जी के भाषण से परेशान हो एक बार नेहरूजी कह उठे, ‘’मालूम होता है, डॉ. मुखर्जी की संगत ठीक नहीं है।’’ ‘‘जी, हां’’ मुखर्जी बोल उठे, ‘’आपके साथ ढाई वर्ष रह चुका हूँ।’’ नेहरूजी को ठीक से जवाब देते नहीं बना, किंतु संसद के सभी सदस्य मुसकरा उठे।

संसद में सभी विरोधी दल के सदस्य उनसे बराबर परामर्श लेते रहते हैं और उन्होंने कभी किसी को सत्परामर्श से वंचित नहीं रखा। अनेक दल चाहते हैं कि वे उनके साथ मिलकर काम करें तथा एक विरोधी दल बना लें, किंतु वे ऐसा कोई दल संगठित नहीं करना चाहते, जिसका कोई सैद्धांतिक आधार न हो। केवल नेतृत्व के लिए सिद्धांतों से समझौता करने को वे तैयार नहीं और यही कारण है कि उनके राष्ट्रीय प्रजातांत्रिक दल में अभी 34 सदस्य हो पाए हैं। उनका विश्वास है कि यदि वे सिद्धांत पर डटे रहे तो अवश्य ही उनके दल की संख्या बढ़ेगी और इसलिए सिद्धांतहीन सौदेबाजी के आधार पर अपने दल को बढ़ाने को अग्रसर होने की अपेक्षा वे थोड़े ही लोगों से संतुष्ट हैं। दल में अन्य लोग आएं या न आएँ किंतु उन्हें सब विरोधी दल के नेता स्वीकार करते हैं। देश भी आज उनकी अोर इसी नाते से देखता है और यह विश्वास है कि संसदीय क्षेत्र में पंडित नेहरू के बाद वे ही दूसरा नेतृत्व निर्माण करने में सफल होंगे।
– पांचजन्य, जुलाई 7, 1952