हमारे कार्य का आधार धर्म होना चाहिए

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दीनदयाल उपाध्याय

हम जिस वैभव की प्राप्ति करना चाहते हैं, वह धर्मयुक्त होना चाहिए। जिससे धारणा होती है, वह धर्म होना चाहिए। व्यक्ति और समाज जिन सिद्धांतों के आधार पर उन्नति करें, वह धर्म होना चाहिए। व्यक्ति की सब क्रियाएं क्यों हैं? क्यों रोटी खाते हैं? हम सब पेट के लिए रोटी खाते हैं। कहीं रोटी खाते हैं, कहीं अच्छी पूरियां खाते हैं। एक ठाकुर नाई को साथ लेकर ससुराल गए। रास्ते में स्वयं ने तो कचौरी खाई और नाई को पैसे दिए कि जाकर चने खा ले। ससुराल में पहुंचकर नाई ने वहां के लोगों से कह दिया कि ठाकुर साहब का पेट ख़राब है। वे केवल मूंग की दाल ही खाएंगे। अब दो-तीन दिन तक मूंग की दाल ही उन्हें खिलाई गई। इस तरह नाई ने अपना बदला ले लिया। व्यक्ति सुख प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहता है। लेकिन आज का सुख कल का दु:ख भी तो हो सकता है। आज कुल्फी खाई, कल गला भी ख़राब हो सकता है। लोग कल के सुख के लिए आज दु:ख भी उठाते हैं। मसूरी का सुख ध्यान में रखकर लोग वहां की घुमावदार सड़कों पर चलते हुए उल्टियां करते हैं। लेकिन मसूरी की कल्पना उनके मन में होती है। इसलिए वह दु:ख बरदाश्त हो जाता है। स्थायित्व का बहुत महत्त्व होता है। दाल-रोटी को हम अपना मानते हैं। लेकिन जहां पकवान मिलें और साथ में तिरस्कार भी हो तो वह पकवान किस काम का? भगवान् कृष्ण ने दुर्योधन की मेवा छोड़कर विदुर के घर साग क्यों खाया? सुख केवल शरीर का ही नहीं होता, सुख तो मन का होता है। मन में दु:ख हो तो कुछ भी अच्छा नहीं लगता।

एक बार लोग भोजन कर रहे थे। तभी तार आया कि रेलगाड़ी की टक्कर में किसी की मृत्यु हो गई है। वे अभी-अभी सुख का अनुभव कर रहे थे, एकदम से दु:ख का समाचार मिला तो अच्छा न लगा। लोग होटल का खाना छोड़कर माता के हाथ का बना भोजन क्यों पसंद करते हैं? क्योंकि उसमें मन का सुख मिलता है। भीम कितना खाना खाते थे, लेकिन जब तक मां कुंती के हाथ से एक-दो निवाले न खा लें, उन्हें सुख नहीं मिलता था, उनकी भूख ही नहीं मिटती थी। हमारे प्रश्न का उत्तर हमें मिल जाए तो बुद्धि का भी सुख प्राप्त हो जाता है। शरीर और मन से परे आत्मा का सुख होता है। सुंदर फूल देखकर आनंद और मुरदे को देखकर दु:ख क्यों प्राप्त होता है? एक बार कहीं आग लग गई। बच्चा अंदर ही रह गया। उसकी मां छटपटा रही थी। एक नौजवान बच्चे को निकाल लाया। शरीर को कुछ नुक़सान हुआ, लेकिन फिर भी उसे सुख प्राप्त हुआ। बच्चे को बचाने की भावना से उसे आत्मिक सुख प्राप्त हुआ।

सुख चार प्रकार के होते हैं-भौतिक, मानसिक, आध्यात्मिक और बौद्धिक। जो रास्ता हमें इन चारों सुखों से मिला दे, वही धर्म का रास्ता है। अंदर और बाहर के जो सुख हैं। यानी भौतिक और आध्यात्मिक जो सुख हैं, ये धर्म के हैं। इसलिए दोनों में से एक की भी अवहेलना हमें नहीं करनी है। जो एक की उपासना करता है, वह ग़लत है। रोटी, कपड़ा और मकान ही नहीं चाहिए। हमें आत्मिक सुख भी चाहिए। अपनी दृष्टि बिगाड़कर हमें रोटी नहीं चाहिए। सम्मानपूर्वक मिलनी चाहिए। रहीम ने एक जगह कहा है, पेट तू पीठ होना चाहिए था। क्योंकि यदि भर जाता है तो दृष्टि बिगाड़ता है, यानी ग़लत कार्यों को उकसाता है और यदि ख़ाली रहता है तो ठीक रहता है। अभ्युदय और निश्रेयस्य दोनों की प्राप्ति जिससे हो, वह धर्म केवल एक नहीं है। उस धर्म को प्राप्त करने का विचार, उस सुख को प्राप्त करने का विचार केवल व्यक्ति पर निर्भर नहीं है। काम करके, परिश्रम करके, पुरुषार्थ करके, कर्मयोग द्वारा ही यह सुख प्राप्त हो सकता है।

कर्म का सिद्धांत हमारे यहां विशेष है। एक और विशेष चीज़ है ‘कमाने वाला खाएगा।’ इस विचार को मान्यता नहीं दी गई है। यह बात तो अच्छी है, लेकिन सभी जानते हैं कि कल न कमाने का काल भी तो आ सकता है। बचपन था तब भी कमाते नहीं थे, किंतु आज कमाएंगे हम और खाएगा कोई और, यह प्रकृति नहीं है। प्रकृति के ऊपर भी एक चीज है संस्कृति। कमाने वाले खिलाएंगे–यही हमारे यहां का सिद्धांत है। प्रकृति में यही है कि जो जैसा कर्म करेगा, वैसा फल पाएगा, हम दूसरों के लिए कर्म करेंगे-यही हमारा यज्ञ है। यह यज्ञ धर्म संस्कृति का आधार है। वृक्ष अपने फल कभी नहीं खाता। वह अपने संपूर्ण जीवन रस को फल में रख देता है। वह तो पत्थर मारने वाले को भी फल देता है। नदियां अपना सारा पानी खुद ही पीने लग जाएं, वृक्ष अपने फल ख़ुद ही खाने लग जाएं तो दूसरों के लिए जीना मुश्किल हो जाएगा। सृष्टि का चक्र ही रुक जाएगा। सबका आधार कर्म है।

कर्म यज्ञमय है। यज्ञ कर्म हमारी ब्रह्ममयी भावना से है, जिसमें से एकात्मता पैदा होती है। पेड़, गाय, चंडाल, ब्राह्मण—सभी में इसका दिग्दर्शन करता है। मां-बेटे में अपना स्वरूप देखकर, उसे अपना समझकर सुख मानती है। हमारे यहां समानता का नहीं, आत्मीयता का सिद्धांत है। संपूर्ण विश्व के अंदर एकात्मकता का भाव रहता है। फिर प्रत्येक काम में सुसूत्रता आती है। कुटुंब का आधार समानता नहीं, एकात्मता है। विद्या, आयु, भौतिक सामर्थ्य, खाने-पीने किसी में समान नहीं। कुटुंब में समानता केवल छोटी सी बात की है। वह है एक ही कुटुंब की। गोत्र आदि की। पश्चिम ने समानता का नारा दिया। वह बस जेल में है, प्रत्येक करेगा अपनी क्षमता के अनुसार तथा प्रत्येक पाएगा अपनी आवश्यकता के अनुसार निर्णय कौन करेगा कि किस की कितनी क्षमता है तथा कितनी आवश्यकता है, जहां पर हरेक ने सोचा कि मैं ही क्यों काम करूं? एक कुटुंब में एक भाई अच्छा एथलीट था, काम नहीं करता था। घर में चाय नहीं बनी थी। भाभी ने कहा, ‘कमाओ’। भाई भी घर में आकर बैठ गया। उसने शतरंज खेलना प्रारंभ कर दिया। तीसरे ने कविता लिखनी शुरू की, धीरे-धीरे घर ख़त्म होने लगा। घर तब ही चल सकता है, जब ज्यादा से ज्यादा कमाया जाए और कम से कम उसमें से लिया जाए।

घर में आत्मीयता होगी, तभी ऐसा हो सकता है। मां तभी सवेरे से काम शुरू करती है। रात्रि तक काम में लगी रहती है। क्या खाती है? बच्चे को खिलौना चाहिए। सबके अंदर का साम्य भाव चाहिए, फिर अंदर से यज्ञ भाव उत्पन्न होता है। राजा को प्रजा के लिए और प्रजा को राजा के लिए सोचना चाहिए। पति-पत्नी के लिए और पत्नी-पति के लिए सोचे। इसी भावना से समाज की रचना हो सकती है और सृष्टि भी इसी आधार पर खड़ी है। हमारे यहां पुनर्जन्म में विश्वास किया जाता है। लोग कहते हैं। कि अगले जन्म में यह कर्म साथ-साथ जाएगा। जो जैसा करेगा वैसा ही भरेगा, लेकिन यह भी सत्य है कि तुम अकेले नहीं हो, सृष्टि के साथ बंधे हो। अकेले को आनंद नहीं आ सकता। रोटी हमारे अकेले के लिए नहीं है। उसके लिए बहुत लोगों को काम करना पड़ता है। इसी तरह कपड़ा बनाया जाता है। हमारा सारा जीवन दूसरे पर अवलंबित है। केवल हमारे समाज पर ही नहीं पूरी सृष्टि पर हमारा जीवन अवलंबित है। तूफ़ान, आंधी, वर्षा के लिए भी हम दूसरों पर निर्भर हैं।

सारे सुखों के साथ-साथ मानसिक सुख भी हमारे लिए जरूरी है। एक बार एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी को एक अंगूठी लाकर दी। सुबह उसकी अंगूठी की तरफ़ किसी का भी ध्यान नहीं गया। वह बहुत परेशान थी कि कोई उसकी अंगूठी देखे और तारीफ़ करे, लेकिन किसी ने भी उसकी तरफ़ ध्यान नहीं दिया। उस स्त्री ने अपने घर में आग लगा दी। जब सब लोग आग बुझाने आए तो वह अंगूठी वाले हाथ से इशारा कर करके बताती रही कि पानी इधर डालो, उधर डालो। अचानक किसी का ध्यान उसकी अंगूठी पर गया। उसने तारीफ़ की और पूछा कि कहां से लाई। वह एकदम बोल उठी कि अगर किसी ने पहले ही पूछ लिया होता तो घर में आग तो न लगती। इसी तरह एक और कहानी है कि किसी नाई ने राजा का कटा हुआ कान देख लिया था। राजा ने उसे मना किया कि यह बात किसी और को न बताए। बताने पर उसे फांसी पर चढ़ा दिया जाएगा, लेकिन नाई को वह बात हज़म नहीं हो पा रही थी। उसके कारण उसका पेट फूल गया था। वह किसी इलाज से ठीक नहीं हुआ। किसी साधू के बताने पर उसने अपनी बात जंगल में जाकर एक बांस के पेड़ को बताई। तब जाकर उसका पेट फूलना बंद हुआ। इसी तरह सारे सुखों के साथ-साथ मानसिक सुख भी आवश्यक है। व्यक्ति का सृष्टि की सत्ता के साथ-साथ जहां ताल-मेल बैठे, उसी में से सेवा, यज्ञ, त्याग की वृत्ति पैदा होती है। यही धर्म है। चारों पुरुषार्थ-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष-जितनी पद्धतियां चारों सुखों की हैं, वे इसके अंतर्गत आती हैं। व्यक्ति, समष्टि, सृष्टि और परमेष्टि इन चारों सत्ताओं में एकात्मता है।

कर्म, पुनर्जन्म सबके अंदर एक ही सत्य है-ब्रह्म। एकोहम् द्वितीयो नास्ति। यज्ञ की उस एकात्मता के आधार पर हमारा धर्म टिका है। चतुर्सूत्री के आधार पर हमारे समाज की रचना हुई।

– संघ शिक्षा वर्ग, बौद्धिक वर्ग : दिल्ली (13 जून, 1958)