अंधेरा छंटेगा, सूरज निकलेगा, कमल खिलेगा

| Published on:

भाजपा के 44वें स्थापना दिवस पर विशेष

अटल बिहारी वाजपेयी

मुंबई में आयोजित भाजपा राष्ट्रीय परिषद् में 28 दिसंबर, 1980 को
श्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा दिए गए अध्यक्षीय भाषण का चौथा भाग―—

चुनाव- एक बड़ा जुआ

चुनाव पद्धति कितनी विचित्र है—इसका अनुमान इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि यद्यपि 1971 में कांग्रेस को भी ठीक उतने ही वोट मिले थे, जितने 1977 में जनता पार्टी को प्राप्त हुए थे, फिर भी 43.06 प्रतिशत वोट के बल पर 1971 में कांग्रेस को लोकसभा की 350 सीटें मिली थीं, जबकि जनता पार्टी को 298 स्थान ही प्राप्त हुए। 1980 में कांग्रेस (आई) 42.57 प्रतिशत वोटों के बल पर 66.86 प्रतिशत स्थान ले गई, जबकि 1977 में जनता को 43.06 प्रतिशत वोटों के आधार पर केवल 56.80 प्रतिशत स्थान ही ‘लोकसभा’ में मिले। कम वोटों के आधार पर अधिक सीटें मिलने का दृश्य 1952 से ही दिख रहा है। ब्रिटेन में इस चुनाव पद्धति के आलोचकों ने कहा है कि इसमें चुनाव एक बड़े जुए का रूप धारण कर लेता है।

नई चुनाव प्रणाली की आवश्यकता

स्पष्ट है कि वर्तमान चुनाव पद्धति दोषपूर्ण है और वह बहुसंख्या की राय को प्रतिबिंबित नहीं करती। राजनीतिक दल सीटों के बल पर यह गर्वोक्ति करते नहीं थकते कि उन्हें प्रचंड बहुमत मिला है, किंतु यह तथ्य बना रहता है कि देश के भीतर उन्हें अल्पमत का ही समर्थन है। संसद् या विधानमंडलों में बहुमत के आधार पर महत्त्वपूर्ण फैसले तो कर लिये जाते हैं, कानून भी बनाए जाते हैं, संविधान में भी मूलगामी संशोधन कर दिए जाते हैं, किंतु इनके पीछे बहुमत का समर्थन नहीं होता। यह आवश्यक है कि गत चुनाव परिणामों के प्रकाश में हम चुनाव पद्धति में शीघ्र ही कुछ बुनियादी परिवर्तन करें। वर्तमान बहुमत प्रणाली के स्थान पर हमें सूची पद्धति का अवलंबन करना चाहिए, जो यूरोप के अधिकतर लोकतंत्रवादी देशों में सफलतापूर्वक चल रही है। सूची पद्धति मतदाताओं को जाति और संप्रदाय की संकुचित परिधियों से निकालकर उन्हें दलों की नीतियों और कार्यक्रमों से जोड़ देगी। इससे दलों का बिखराव रुकेगा और दलबदल पर अंकुश लगेगा। चुनाव एक जुआ नहीं रहेगा। संसद तथा विधानमंडलों में राजनीतिक दलों का प्रतिनिधित्व मोटे तौर पर उन्हें प्राप्त जन समर्थन के अनुरूप होगा। बहुमत प्रणाली के कुछ लाभ अवश्य हैं। एक चुनाव क्षेत्र से एक प्रतिनिधि अपने विकास की ओर अधिक अच्छी तरह से ध्यान दे सकता है। पश्चिम जर्मनी ने दोनों पद्धतियों की अच्छाइयों का समावेश कर एक मिश्रित प्रणाली का विकास किया है। अच्छा होगा कि हम लोकसभा के लिए सूची पद्धति तथा विधानसभाओं के लिए संयुक्त पद्धति का अवलंबन करें।

चुनाव कानूनों में संशोधन के लिए निर्मित संयुक्त संसदीय समिति ने 1973 में यह सिफारिश की थी कि देश में सूची पद्धति लागू करने की संभावनाओं का पता लगाने के लिए एक विशेषज्ञ समिति गठित की जाए। यह खेद का विषय है कि उस सिफारिश पर अभी तक अमल नहीं हुआ है। इस मामले में जनता सरकार का दामन भी बेदाग नहीं है। किंतु हां, उसने कुछ अन्य दूरगामी सुधारों को स्वीकार किया था, जैसे चुनाव का व्यय भार सरकार वहन करे। यह निश्चय हुआ था कि इस संबंध में कानून बनाने से पहले सरकार विरोधी दलों से परामर्श करेगी। मेरी मांग है कि विशेषज्ञ समिति के गठन में अब और देर न की जाए तथा जनता पार्टी सरकार के शासन में स्वीकृत सुझावों को अमल में लाया जाए।

धन-बल के प्रभाव को रोकने की आवश्यकता

चुनाव में पूंजी का बढ़ता हुआ प्रभाव सदैव ही चिंता का विषय रहा है, किंतु अब तो समस्या ने बड़ा खतरनाक रूप ले लिया है। स्वदेशी धन के साथ विदेशी धन के उपयोग के समाचार भी मिले हैं। चुनाव में धन शक्ति के घातक प्रभाव को रोकने के लिए निम्नलिखित सुझावों पर गंभीरता से विचार होना चाहिए—
1. चुनाव का सारा व्यय भार राज्य को वहन करना चाहिए। राजनीतिक दलों को उनके द्वारा प्राप्त मतों के प्रतिशत के आधार पर अनुदान दिए जाएं। जो उम्मीदवार अपनी जमानत बचाने में सफल हों, उन्हें कानून द्वारा निर्धारित खर्च की सीमा तक वित्तीय सहायता दी जाए।
2. उम्मीदवार के चुनाव व्यय में उसकी पार्टी द्वारा किए गए खर्च को भी जोड़ा जाए।
3. राजनीतिक दलों के चुनाव व्यय की सीमा निर्धारित की जाए।
4. समाचार-पत्रों में विज्ञापनों, पोस्टरों, पर्ची आदि की अधिकतम व्यवस्था की जाए।
5. राजनीतिक दलों के आय-व्यय पत्रकों के ऑडिट की कानूनी व्यवस्था की जाए।
6. तारकुंडे समिति ने चुनाव आयोग को बहुसदस्यीय बनाने तथा मताधिकार की न्यूनतम उम्र की सीमा घटाकर 18 वर्ष करने के महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए हैं, जिन्हें स्वीकार किया जाए।

जनता सरकार ने सभी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों को चुनाव प्रचार के लिए रेडियो तथा टेलीविजन का उपयोग करने की सुविधा देकर एक ऐतिहासिक कार्य किया था। इस सुविधा का विस्तार होना चाहिए। चुनाव प्रसारण के अतिरिक्त राजनीतिक प्रसारणों की एक योजना बननी चाहिए।

अनिवार्य मताधिकार का प्रयोग

मताधिकार के उपयोग को अनिवार्य करना भी जरूरी है। देश में अब तक 7 आम चुनाव हो चुके हैं। किंतु ऐसे मतदाताओं की संख्या काफी है, जो चुनाव के प्रति सर्वथा उदासीन हैं और जिन्होंने मतदान में भाग नहीं लिया। 1977 की तरह 1980 का चुनाव भी अधिक महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर लड़ा गया था, फिर भी 35 करोड़ 40 लाख 28 हजार मतदाताओं में से केवल 20 करोड़ 12 लाख 69 हजार ने मताधिकार का उपयोग किया। इसका अर्थ यह है कि 15 करोड़ से अधिक मतदाताओं ने वोट डालने की आवश्यकता ही नहीं समझी अनेक लोकतंत्रवादी देशों में मताधिकार का प्रयोग अनिवार्य है।

विदेश नीति

वर्तमान सरकार ने नीति को दलगत राजनीति का खिलौना बनाकर इस मामले में गत तीन दशकों में विकसित राष्ट्रीय सहमति को गहरी क्षति पहुंचाई है। 1977 में जनता पार्टी ने चुनाव का मुख्य मुद्दा घरेलू मामलों को बनाया था। चुनाव जीतने के बाद विदेशी नीति की निरंतरता पर बल दिया था। 1980 और में कांग्रेस (आई) ने विदेश नीति को न केवल चुनाव के अखाड़े में घसीटा, बल्कि उसे अपने चुनाव अभियान का एक प्रमुख मुद्दा भी बनाया। यदि आज पड़ोसी देशों के साथ हमारे देश के संबंधों में कुछ ठिठुरन दिखाई देती है तो उसका आरंभ चुनाव के दौरान दिए गए इन भाषणों में खोजा जाना चाहिए कि ‘हमारे छोटे-छोटे पड़ोसी देश हमें आंखें दिखा रहे हैं।’

पड़ोसी देशों से बिगड़े संबंध

30 वर्षों में पहली बार अच्छे पड़ोसीपन तथा लाभदायक द्विपक्षवाद की नीति का अवलंबन कर जनता सरकार ने इस क्षेत्र में विश्वास का वातावरण बनाने में सफलता पाई थी। पड़ोसी देशों के साथ व्यवहार करने के पुराने तौर-तरीकों को वापस लाकर इस वातावरण को 12 मास के भीतर ही बिगाड़ दिया गया।
यह आरोप सर्वथा निराधार तथा विद्वेषपूर्ण है कि जनता सरकार ने पड़ोसी देशों की वाहवाही लूटने के लिए राष्ट्र के महत्त्वपूर्ण हितों की बलि चढ़ा दी। पाकिस्तान के साथ सलाल का समझौता उन्हीं शर्तों पर किया, जिनपर पुरानी सरकार समझौता करना चाहती थी, किंतु करने में विफल रही थी।

जहां तक गंगाजल के बंटवारे का सवाल है, 1975 में सरकार ने बांग्लादेश के साथ जो समझौता किया था, उसमें हमारे देश को केवल 11 हजार से 16 हजार क्यूसेक तक पानी मिला था। जनता सरकार पानी की मात्रा को बढ़ाकर 20 हजार 500 क्यूसेक तक ले जाने में सफल हुई।

अफगानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप : ढुलमुल नीति

अफगानिस्तान में सोवियत संघ के सैनिक हस्तक्षेप, जो अब लगभग कब्जे का रूप धारण कर चुका है, के प्रश्न पर भारत सरकार की ढुलमुल नीति ने विश्व में देश की छवि को धूमिल किया है। इसे पड़ोसी देशों, गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों और इसलामी मुल्कों से अलग-थलग कर दिया है। सोवियत सैनिक हस्तक्षेप के विरुद्ध अपनी आवाज असंदिग्ध रूप से उठाने में असफल रहने के लिए हमारे परंपरागत मित्र तथा स्वतंत्रताप्रिय अफगान हमें कभी क्षमा नहीं करेंगे।

हाल में ही सोवियत राष्ट्रपति श्री ब्रेझनेव के भारत आगमन के अवसर पर जारी की गई संयुक्त घोषणा में अफगानिस्तान के बारे में एक शब्द तक नहीं कहा गया। इस बारे में भारत का मौन उसकी दोमुंही आवाज से भी अधिक मुखर है।

संदिग्ध कंपूचिया नीति

कंपूचिया में वियतनामी सेना के बल पर टिकी सरकार को मान्यता देने का भारत सरकार का फैसला भी किसी सिद्धांत से विहीन और भारत की विदेशी नीति की स्वतंत्रता के बारे में दुनिया में, विशेषकर दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में, संदेह जगानेवाला है।

यहां यह उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा कि जनता सरकार ने चीन के साथ संबंधों को सामान्य बनाने की प्रक्रिया को प्रामाणिकता से आगे बढ़ाने का प्रयास करते हुए भी वियतनाम पर चीन के हमले की निंदा करने में किसी प्रकार की कोताही नहीं की थी। आक्रमण, आक्रमण है; वह चाहे कंपूचिया पर हो या वियतनाम पर भारत आक्रमण को नापने के दो पैमाने नहीं अपना सकता।

.                                                                                                                          क्रमश: