अर्थ चिंतन

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दीनदयाल उपाध्याय

घर-गृहस्थी के चक्र में फंसे हुए किसी सामान्य व्यक्ति से जब आप देश, धर्म, साहित्य आदि की चर्चा करें, तो उसके मुख से अनायास ही यह लोकोक्ति सुनने को मिलती है-

भूल गए राग-रंग, भूल गए छकड़ी।
तीन चीज़ याद रहे, नोन तेल लकड़ी ॥

आज के समाज का यही चित्र है, जिसमें बहुजन समाज नोन, तेल, लकड़ी की चिंता में ही सुबह से शाम करते हुए दिन, महीने और वर्ष बिताता हुआ अपने जीवन की घड़ियां काट जाता है। जीवन के शेष प्रश्न उसके सामने कभी प्रमुख रूप से आते ही नहीं। आए भी तो वह उन्हें द्वितीय स्थान देता है।’ आधी पोटोबा मग विठोबा’ की मराठी उक्ति के अनुसार, वह पहले भोजन और फिर भजन की चिंता करता है, और जब भोजन की चिंता में ही सब समय और शक्ति लग जाती है, तो भजन के लिए अवकाश ही कहां बचता है।

जनसाधारण ही नहीं तो समाज के अग्रणी एवं विचारकों के भी चिंतन का यही प्रमुख विषय रह गया है। 15 अगस्त, 1947 तक देश के सभी आंदोलनों एवं प्रयासों का हेतु था स्वतंत्रता की प्राप्ति। स्वदेशी, खादी और ग्रामोद्योग, नमक और जंगल सत्याग्रह, करबंदी और लगानबंदी जैसे आंदोलन, फंड के आधार पर स्थापित उद्योग, कपड़े और चीनी की मिलों की स्थापना, संरक्षण और अवमूल्यन आदि के प्रश्नों की ओर देखने का हमारा दृष्टिकोण आर्थिक न होकर राजनीतिक था। इनके सहारे हम स्वतंत्रता संग्राम को बल देना चाहते थे। किंतु स्वतंत्रता की प्राप्ति के बाद हमारे दृष्टिकोण में अंतर आया है। अब हम प्रत्येक प्रश्न को आर्थिक दृष्टिकोण से देखते हैं। देश की आर्थिक समृद्धि अब हमारा लक्ष्य हो गया है। राजनीतिक दलों के कार्यक्रम एवं शासन की योजनाएं इसी उद्देश्य से बनाई जा रही हैं। हमारी संपूर्ण शक्ति इसी एक प्रश्न पर केंद्रित है।

साध्य साधन विवेक

आंदोलनात्मक दृष्टि से इस केंद्रीकरण के पक्ष में चाहे जो तर्क उपस्थित किए जाएं, किंतु इससे मानव जीवन की वास्तविकता, उसके उद्देश्य और हेतु एवं उच्चतम विकास की सीमाएं आदि के संबंध में एक एकांगी तथा विकृत दृष्टिकोण का प्रसार बड़ी तेजी के साथ होता जा रहा है। साध्य और साधन का विवेक समाप्त हो रहा है। अर्थोत्पादन जीवन का आवश्यक आधार ही नहीं, संपूर्ण जीवन बन गया है। आर्थिक विकास के हेतु धन प्राप्त करने के लिए हम अपनी सेना को भंग कर दें, यह भी सुझाव दिए जाते हैं। सेना के अभाव में यदि हम अपनी स्वतंत्रता से हाथ धो बैठे तो फिर आर्थिक विकास किसका करेंगे? क्या हमें पराधीनता की स्वर्ण श्रृंखलाएं स्वीकार होंगी? और फिर ये स्वर्ण शृंखलाएं लोहे की बेड़ियों में नहीं बदलेंगी यह कौन कह सकता है!

मनुष्य के जीवन का लक्ष्य और उसमें अर्थ का स्थान निश्चित न होने के कारण हम उस मार्ग का भी ठीक निर्धारण नहीं कर पा रहे हैं, जिस पर चलकर श्री और समृद्धि का उपभोग कर सकें। साध्य का पता लगे बिना साधन का निश्चय कैसे हो सकता है? हमारी परंपरा और संस्कृति हमें बताती है कि मनुष्य केवल भौतिक आवश्यकताओं और इच्छाओं का पिंड नहीं अपितु वह एक आध्यात्मिक तत्त्व है, जिसने भौतिक शरीर धारण कर रखा है। अतः मंदिर की सब प्रकार से चिंता करते हुए भी उसका मंदिरत्व उसमें प्रतिष्ठित मूर्ति के कारण है तथा मूर्ति का शृंगार, धूप-दीप, नैवेद्य, अर्चन आदि उसमें आरोपित देवत्व के कारण हैं, इस तथ्य का विस्मरण नहीं होना चाहिए। यदि मंदिर की रक्षा और निर्माण में मूर्ति को भूल गए तो हमारा संपूर्ण परिश्रम व्यर्थ ही जाएगा।

किंतु जिस पश्चिम का अनुकरण कर हम अपने अर्थनैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठापना कर रहे हैं, वहां जीवन के इस सर्वसंग्राही भाव के लिए कोई स्थान नहीं। फलतः आज हमारे मन, वचन और कर्म में अंतर्विरोध उत्पन्न हो गया है। अंतश्चेतना और बाह्यकर्म दो विरोधी दिशाओं में खींच रहे हैं। यह संघर्ष हमें अपनी संपूर्ण शक्ति से आर्थिक समृद्धि की आज की योजनाओं को पूर्ण करने में भी जुटने नहीं देता। जो कुछ हम करते हैं, वह अन्यमनस्क भाव से और जब हमें अपने प्रयास सफल होते हुए नहीं दिखते तो मन में एक विफलता, आत्मज्ञान और आत्मविश्वासहीनता का भाव उत्पन्न होता है। इस भाव को हम प्रचारतंत्र से, वास्तविकता से आंखें मूंदकर, दूसरों को अपनी असफलता के लिए दोषी ठहराकर, अवास्तविक समस्याओं और संकटों का भूत खड़ा करके तथा हवाई आदर्शों और भविष्य की अधिकाधिक स्वर्णिम कल्पनाजनित आशाओं से दबाने का प्रयत्न करते हैं। फलतः हमारा मानस अधिकाधिक उद्विग्न होता जाता है। हम यथार्थ की भूमि से दूर हटते जा रहे हैं। इस गुत्थी को सुलझाए बिना हम आगे नहीं बढ़ सकेंगे।

पश्चिम के अर्थशास्त्र की अनुकूलता

जीवन के विभिन्न आदर्शों के कारण ही नहीं, देश और काल की भिन्न परिस्थितियों के कारण भी हमारे आर्थिक विकास का मार्ग पश्चिम से भिन्न होना चाहिए। किंतु हम मार्शल और मार्क्स से बुरी तरह बंध गए हैं। अर्थशास्त्र के जिन नियमों की उन्होंने विवेचना की उन्हें हम शाश्वत मानकर चल रहे हैं। वे व्यवस्था सापेक्ष हैं, जो यह जानते हैं, वे भी उनकी परिधि से बाहर नहीं निकल पाते। पश्चिम की आर्थिक समृद्धि ने उनकी अर्थोत्पादन पद्धति के विषय में हमारे मन में निरपवाद रूप से श्रद्धा उत्पन्न कर दी है। पाश्चात्य अर्थशास्त्रज्ञों ने इतना विवेचनात्मक साहित्य उत्पन्न किया है कि उसके भार से हम सहज ही दब पाते हैं। हम उससे ऊपर उठ नहीं सकते। इस अर्थ विज्ञान में अनेक ऐसे विवेचन भी हो सकते हैं, जो देश काल व्यवस्था निरपेक्ष हों तथा सबके लिए उपयोगी सिद्ध हो सकें, किंतु खरे-खोटे की परख कोई पारखी ही कर सकता है।

हमारी शिक्षा और दीक्षा इन पारखियों को उत्पन्न नहीं कर सकी है। हमारे अर्थशास्त्री पश्चिम के अर्थशास्त्र में पारंगत हो सकते हैं, किंतु वे उस अर्थशास्त्र के विकास में कोई ठोस योगदान नहीं दे सके हैं, क्योंकि भारत की अर्थव्यवस्था उस दृष्टि से उनके लिए न तो विचार प्रवण हो सकती है और न प्रयोग भूमि ही। स्वतंत्र भारतीय अर्थशास्त्र के विकास की या तो उन्होंने आवश्यकता नहीं समझी या उसमें उन्होंने स्वयं को असमर्थ पाया। गांधीवादी तथा सर्वोदयवादी विचारधाराओं में जिस अर्थशास्त्र की चर्चा की गई है, वह इस आवश्यकता को पूर्ण नहीं कर पाता। वह अनिश्चित ही नहीं सामयिक और भूदान आंदोलन के माध्यम के रूप में जनता के सम्मुख आया है। पश्चिम की अर्थव्यवस्था की कुछ बुराइयों की ओर उसने भले ही सफल संकेत किया हो, किंतु भारत के भावी का विधान करने का सामर्थ्य उसमें नहीं है।

नई परिभाषाएं

पाश्चात्य अर्थशास्त्रियों में से बहुतों ने अर्ध-विकसित क्षेत्रों की समस्याओं पर नया साहित्य प्रस्तुत किया है। संयुक्त राष्ट्र संघ की अनेक एजेंसियों और समितियों ने भी इस विषय में बहुत कुछ कार्य किया है। उन सबके प्रति कृतज्ञ होते हुए भी हम यह नहीं कह सकते कि उनका रोग निदान और प्रस्तावित चिकित्सा सही है। यदि वे किन्हीं निहित स्वार्थों का प्रतिनिधित्व न भी करते हों तो भी वे अपने पूर्वग्रहों तथा निष्ठाओं से मुक्त होकर पूर्णतः वस्तुनिष्ठ विवेचन कर सकेंगे, यह मानना कठिन है और फिर हमारे मानस की पृष्ठभूमि में हमारी श्रद्धाओं के आधार पर विचार कर सकना तो उनके लिए असंभव सा ही है। अतः इस साहित्य का उपयोग भी हमें सावधानी से ही करना होगा।

हम यह भी नहीं भुला सकते कि पश्चिम के सबल राष्ट्र अपने हितों का संरक्षण करने के लिए नई-नई उपाय योजनाएं कर रहे हैं। उपनिवेशवाद और राजनीतिक गुलामी जहां बीते युग की चीजें बनती जा रही हैं, वहां आर्थिक और वैचारिक आधार पर देशों को अपने अधीन बनाए रखने के गूढ़ उपाय अपनाए जा रहे हैं। फलतः शब्दों की परिभाषाएं बदल रही हैं। पूंजी विनियोग आर्थिक सहायता के नाम से पुकारा जाने लगा है, तो कुछ राष्ट्रों ने अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के चोले में अपने पग बढ़ाना उपयुक्त समझा है। यह भी सच है कि हम इन राष्ट्रों द्वारा बढ़ाए गए सहायता के प्रत्येक हाथ को शक़ की नज़र से देखकर झटक नहीं सकते। ऐसा भी हो सकता है कि दोनों के हित पूरक हों और कभी सार्वभौम परिस्थितियां किसी पग विशेष के लिए विवश करें। किंतु हमारा हित और अहित किसमें है, इसका भी तो तब तक ज्ञान नहीं हो सकता, जब तक हम अपनी व्यवस्था की भली-भांति मीमांसा न कर लें।

निहित स्वार्थ

पाश्चात्य अर्थशास्त्र के भारतीय विद्वानों के अतिरिक्त भारत में ऐसे लोग भी बहुत बड़ी संख्या में हैं, जिनके हित पाश्चात्य अर्थव्यवस्था एवं उत्पादन प्रणाली से जुड़े हुए हैं। पिछले सौ वर्षों में जिस अर्थव्यवस्था का भारत में विकास हुआ, उसने भारत और पश्चिम के औद्योगिक देशों की व्यवस्थाओं को एक-दूसरे का पूरक बनाया। इसमें भारत के हितों का संरक्षण नहीं हुआ, बल्कि उसका बराबर शोषण ही होता रहा। किंतु इस शोषण की क्रिया में पाश्चात्य आर्थिक हितों ने भारत के कुछ वर्गों को भी अपने अभिकर्ता के रूप में साझीदार बना लिया। प्रारंभ में व्यापारी और कमीशन एजेंट के रूप में और बाद में कुछ अंश में उद्योगपति, स्वतंत्र अथवा साझीदार के रूप में इनके हित संबंध विदेशी आर्थिक हितों के साथ बंध गए। इस वर्ग का देश के आर्थिक जीवन पर पर्याप्त प्रभुत्व रहा है। आज भी संख्या तथा देश की आर्थिक आय में उनका योगदान कम होते हुए भी वे समाज और देश के अर्थ जीवन पर भारी प्रभाव रखते हैं। इस वर्ग की आकांक्षाएं निश्चित हैं। वे अधिकाधिक अपने विदेशी प्रतिद्वंद्वियों का स्थान ग्रहण करना चाहते हैं। समाज के सर्वसामान्य जीवन पर उसका क्या परिणाम होगा, इसकी उन्हें चिंता नहीं। पाश्चात्य अर्थशास्त्र के भारतीय विद्वानों से उनका सहज ही समसंयोग मेल बैठ जाता है। भारत के सभी समाचार-पत्र, विशेषकर अंग्रेज़ी के, उनके प्रभाव क्षेत्र में हैं। ये सब मिलकर जान या अनजान में ऐसा मायाजाल रच देते हैं कि साधारण जन उसमें से निकल ही नहीं पाता।

शासन की सीमाएं

शासन का भी जैसा स्वरूप है, वह इस इंद्रजाल से नहीं बच पाया। प्रथम तो प्रशासन का पूरा ढांचा हमें अंग्रेजों से विरासत में मिला। हम उसे न तो बदल सकते थे और न बदल पाए। जब कांग्रेस के नेताओं ने भी 1947 के बाद अपनी राष्ट्रीयता केवल खादी के कुरते और टोपी तक ही सीमित कर दी तथा शेष अपनी बातों में प्रगति के पश्चिमी मानदंडों को ही उत्तरोत्तर स्वीकार कर लिया, तो देश के भृत्यवर्ग के लिए भी अपनी पुरानी विचार परंपराओं से जकड़े रहना आवश्यक हो गया। हमारे नियोजकों का आर्थिक चिंतन इसी परिधि में चक्कर काटता रहता है। फिर विदेशी सहायता, विदेशी विशेषज्ञों की सम्मतियों तथा विदेशी जीवन का चित्ताकर्षक बाह्य स्वरूप तथा थोड़ी अवधि में कुछ कर दिखाने की राजनीतिक आवश्यकताओं ने उनको जन-जीवन से दूर हटाकर उसकी समस्याओं का यथार्थ आकलन करने में अक्षम बना दिया। फलतः योजना के बाद योजनाएं बनाई जा रही हैं, किंतु हम जनसाधारण के जीवन में सुख और समाधान की सृष्टि करने में समर्थ नहीं हो सके हैं।

मौलिक विचार की आवश्यकता

अतः आवश्यकता है कि हम अपने जीवन-दर्शन का विचार कर भारतीय अर्थव्यवस्था का मौलिक निरूपण करें तथा आज की समस्याओं को यथार्थ की कंटकाकीर्ण, ऊबड़खाबड़ किंतु ठोस भूमि पर खड़े होकर सुलझाएं। भारत के ‘स्व’ का साक्षात्कार किए बिना हम अपनी समस्याओं को सुलझा नहीं पाएंगे। यदि किसी क्षेत्र में संयोगवश थोड़ी-बहुत सफलता मिल भी गई तो उसका परिणाम हमारे लिए हितकर नहीं होगा। हम परानुकरण की ओर अधिक प्रवृत्त होंगे। अपने स्वत्व और सामर्थ्य के विकास के स्थान पर परावलंबन का भाव हमारे मन में घर कर जाएगा। आत्महीनता का यह भाव घुन की तरह राष्ट्र की जड़ें खोखली कर देगा। इस प्रकार जर्जर मूल राष्ट्र कभी झंझावातों में खड़ा नहीं रह सकता। यदि हमें देश का विकास करना है तो इस प्रश्न का अंतर्मुख होकर विचार करना ही होगा। यदि उसमें कुछ देर भी लगे तो भी वह स्थायी एवं सर्वहितकर हल होगा।

(‘भारतीय अर्थ-नीित विकास की एक दिशा’ से साभार)