पं. दीनदयाल उपाध्याय
गतांक का अंतिम भाग…
पुरुषार्थ की कल्पना मनुष्य को करनी आवश्यक है। ऐसे चार तरह के कार्य अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष। ये चार पूर्ण होते रहे, तो ही सामाजिक जीवन सफल होता है। अर्थ: जीवनावश्यक सब चीजें प्राप्त करने के लिए राज्य आवश्यक है। और इसका घनिष्ठ संबंध है। राजा नहीं, सेना नहीं, पुलिस नहीं तो जीवन का क्या होगा? गुलाम बनेंगे। अर्थहीन, राज्यहीन अवस्था बन जाएगी। इसलिए साधन जुटाना चाहिए। इसलिए अर्थ पुरुषार्थ आवश्यक कामनाओं की तृप्ति के लिए अर्थ की जरूरत होती है। अर्थ, काम पुरुषार्थ का साधन है और काम पुरुषार्थ के साथ अर्थ है। अर्थ का उद्देश्य अपनी आशाओं का ‘काम’ तृप्त करने के लिए। उदाहरण, पेट भरने के लिए चावल, कपड़े के लिए कपास निर्माण करते हैं। परंतु आशाओं पर बंधन चाहिए, वही धर्म। गेहूं, चावल, द्राक्ष, ये आहार के लिए हैं। मद्य तैयार करने के लिए नहीं। यानी काम-तृप्ति धर्म विरोधी नहीं रहनी चाहिए। दूसरे को देकर खाने में मन को शांति मिलती है और यह समझकर बताने वाली बुद्धि होती है। जिन्होंने अनुभव लिया है, उनकी बुद्धि-ज्ञान ही हमारे मार्गदर्शक होते हैं। अपने सुख के नियम ऐसे अनुभवी लोगों ने खोज निकाले हैं। बीमार आदमी को उपचार के नियम आयुर्वेद ने बताए। उसी प्रकार जीवन के सब नियम उन्होंने बनाकर रखे। ये नियम निर्माण नहीं कर सकते, तो उनकी खोज करनी पड़ती है। ये सब नियम धर्म-कार्य के लिए हैं, आख़िर में मोक्ष दिलाने के लिए हैं। मोक्ष यानी परम आनंद की स्थिति ।
यह सब मिलाकर राष्ट्र होता है। व्यक्ति और समाज यानी सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों भी महत्त्वपूर्ण हैं। समाज कितना भी छोटा हुआ, तो भी उसमें दो बाजू रहती ही हैं। उन दोनों को, दो बाजू को अलग नहीं कर सकते।
न्याय-अन्याय का विवेक
पाश्चात्यों में आर्थिक मानव’ की मात्र कल्पना की गई है। अर्थशास्त्र में चार से पांच रुपया ज्यादा है, लेकिन न्यायपूर्ण और प्रामाणिकता से मिले चार रुपए, अन्याय से मिले पांच रुपए से अच्छे रहते हैं। उसकी क़ीमत ज्यादा है। आज अपनी स्थिति बहुत ख़राब हो गई है। इसका कारण यह है कि यह जो न्याय, अन्याय का विवेक है, उसको हम भूल बैठे हैं। प्रजातंत्र में ‘राजकीय-मानव’ की मात्र कल्पना है। इस प्रकार एक एक बात का अलग-अलग विचार पाश्चात्यों ने किया है, उससे परस्पर विरोध निर्माण होने से एक-दूसरे के साथ सहकार नहीं, उनका तर्क परस्पर मेल नहीं खाता।
अपने यहां सब बातों का समग्र विचार किया गया है। अंतिम हित निर्माण करने में कौन समर्थ रहते हैं, बीमार आदमी को कौन सी औषधि देनी चाहिए। इसका तय जनता, सरकार, न्यायालय इनमें से कोई भी नहीं कर सकता। उसका तय केवल वैद्य ही कर सकता है। वैद्यकीय शास्त्र में यह एक धर्म, नियमों का ज्ञान, वही अंतिम अधिकारी होता है। सब क्षेत्रों में यही नियम लागू है। ये सब मिलकर धर्म होता है। जन्म होते ही माता के स्तन में दूध तैयार रहता है। जन्म होते ही प्राणी स्तर पर रहे व्यक्तियों का समाज पोषण करता है। उसे ज्ञान देता है, अन्यान्य संस्कार करता है और उसको मनुष्य बनाता है। सब सामाजिक संस्थाओं का यह करणीय कार्य है। कुटुंब, पंचायत, जाति और अनिवार्य पक्ष में राज्य, ये सब व्यक्ति को सहायता देनेवाले आधार हैं। सबके आख़िर में राज्य है। लेकिन आज के समाजवाद में सबसे प्रथम और आख़िर में भी राज्य है।
व्यक्ति को निष्काम-कर्म करना चाहिए। पितृऋण, मातृऋण, देशऋण, देवऋण आदि सब ऋण चुकाने चाहिए और इसलिए उसको काम मिलना चाहिए। कर्म के अनुसार फल मिलता है। वह फल भी व्यक्ति को समाज को समर्पण कर देना चाहिए। किसान खेती करता है और आख़िर में निर्माण हुई फ़सल समाज को अर्पण करता है। इसी को ही यज्ञ कहते हैं। उस फ़सल का समाज समानता से वितरण करता है। जैसे मां अपने चार बेटों में कोई भी चीज़ समानता से और आत्मीयता से बांटती है। समाज यानी कुटुंब, जाति, पंचायत और शासन। शासन एक ही नहीं। व्यक्ति कमाया हुआ धन मां के पास देता है। और मां फिर चारों भाइयों को ज़रूरत के अनुसार धन देती है। कमाया हुआ धन कोई पंचायत को, कोई राज्य को कर के रूप में देते हैं। इस धन का आगे राज्य क्या करेगा? स्कूल, दवाख़ाना आदि आवश्यक बातें, मां के जैसी आत्मीयता से समाज को देता है। इसी को यज्ञ-चक्र कहते हैं। समुद्र से भाप, बादल, बरसात, नदी, समुद्र यह है उसी प्रकार व्यक्ति समाज का परस्पर सुखपूरक रीति से चक्र फिरता है। कर्म, फल, यज्ञ, यह चक्र जहां है, वहीं समाज ठीक तरह से चलता है। समाज में सुव्यवस्था रहती है।
पश्चिम ने बांटा
पाश्चात्यों ने एक समुच्चय के रूप में जीवन का समग्र विचार न करते हुए उसको अनेक हिस्सों में बांटा है और जीवन का टुकड़े-टुकड़े में विचार किया है। उदाहरणत:, पाश्चात्य पद्धति से रोगों का निदान करके उस पर इलाज होता है, उसमें व्यक्ति के शरीर का विचार नहीं है, लेकिन आयुर्वेद में व्यक्ति के संपूर्ण शरीर की चिकित्सा होती है। रोगों का निदान करके शरीरानुकूल इलाज किया जाता है। सबको एक ही दवा नहीं दी जाती। पाश्चात्यों की भोजन-पद्धति, भोजन करने का तरीक़ा भी खंड-खंड में है। हम चावल दाल मिलाकर खाते हैं। लेकिन पाश्चात्यों को सब मिलाकर कैसे खाना है, मालूम नहीं। वे अलग-अलग चीजें अलग-अलग खाते हैं। हमने जीवन को संपूर्ण रूप से देखा है। केवल आर्थिक कार्यक्रम लेकर कोई चले तो उसकी उन्नति नहीं होती। परीक्षा में विद्यार्थी सब विषयों में पास हुआ तो ही उत्तीर्ण होता है। केवल एक विषय में पास होकर नहीं चलेगा। अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष, इन सब में पास हुए तो ही जीवन सफल और यशस्वी बनता है। व्यक्ति और समाज के हित का सदैव विचार चाहिए। ज़ोर से भागना भी है तो पैर को साथ देनेवाली दृष्टि भी चाहिए। आंख नहीं और तेज़ दौड़ेगा, तो वह कहां जाकर टकराएगा?
अपने शरीर के अंदर ताक़त यानी अपना प्राण है। वैसे समाज का प्राण यानी विराट् है। राष्ट्र के अंदर अगर विराट् है, संगठित शक्ति, क्षात्र तेज है तो ही राष्ट्र ठीक रहता है। यदि निरोगी सशक्त अवस्था में है तो शरीर के सब अवयवों में शक्ति रहती है यदि यही दुर्बल है तो राष्ट्र दुर्बल रहता है, विकृतियां पैदा होती हैं। रा.स्व. संघ समाज की वह प्राणशक्ति है। वही सब क्षेत्रों में कार्य कर रही है। हृदय पैर की छोटी उंगली की भी चिंता करता है। उसी तरह लद्दाख पर हमला हुआ तो यहां हमें दुःख होता है। संघ का कार्य विराट् को मज़बूत बनाना है।
विराट् को जाग्रत् करना यानी संगठन का कार्य करना है। टुकड़ा-पद्धति से यह कार्य नहीं होगा। इसलिए हम पश्चिम के पद-चिह्नों पर चलना बंद करें और अपनी पद्धति का ज्ञानदीप आगे लें। इससे पाश्चात्यों को भी मार्ग-दर्शन करने का सामर्थ्य अपने में आएगा। हम पश्चिम को अपनी एकात्म जीवन-पद्धति, एकात्म मानवतावाद देना चाहते हैं। हम अपने रास्ते पर चलते हुए एक आदर्श जीवन—
‘एतद्देश प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः ।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्याम् सर्वमानवाः ॥
ऐसा एक आत्मविश्वास का भाव लेकर हम कार्य करके दिखाएंगे तो पाश्चात्य राष्ट्र अपने पीछे जरूर आ जाएंगे। इसलिए इस मार्ग का रक्षण करना चाहिए। हमारी संगठित शक्ति से धर्म का रक्षण करते हुए परम वैभव प्राप्त करना है, ऐसी अपनी प्रार्थना है। उसको हम हर दिन कहते हैं। हमें विचार करना चाहिए कि भगवान् से केवल खीर मांगने से काम नहीं चलेगा। खीर हज़म करने की सामर्थ्य, जीर्ण शक्ति भी हमें चाहिए। शरीर स्वस्थ रहा तो कोई सी भी चीज़ जीर्ण होती है। अपनी कार्य पद्धति में अपने जीवनादर्शों का रक्षण करनेवाली शक्ति का विन्यास होता है। वृद्धि होती है। विराट् जाग्रत् होता है। उससे राष्ट्र का परम वैभव मिलाने की सिद्धता होती है। इसलिए यह संगठन का कार्य करणीय है। इसे स्वीकार करें। (समाप्त)
(-संघ शिक्षा वर्ग, बौद्धिक वर्ग: बंगलौर, 27 मई, 1965)