जयकृष्ण गौड़
कम्युनिस्टों की शासन व्यवस्था में न तो विरोधी विचारों को बर्दाश्त किया जाता है और न विरोध को। चाहे रूस की क्रांति हो या माओवादी क्रांति हो, इनके द्वारा खूनी तानाशाही को ही जन्म दिया गया। मार्क्सवाद के विचारों के आधार पर सर्वहारा वर्ग की न सरकार बनी और न कहीं वर्ग संघर्ष की स्थिति बनी। जिस सोवियत संघ को साम्यवादी व्यवस्था का मॉडल बताया जाता था, वहीं स्टालिन जैसा तानाशाह पैदा हुआ, जिसके अत्याचार से सोवियत संघ की जनता त्राहि-त्राहि कर उठी।
जिस रोटी-कपड़ा-मकान के नारों से साम्यवादी विचार प्रभावी हुआ, वह रोटी- रोजी तो नहीं दे सका और लोगों को भिखारी की तरह रोटी की लाइन में खड़ा कर दिया। सोवियत संघ की जनता ने कम्युनिस्ट तानाशाही को उखाड़ फेंकने के साथ सोवियत संघ का भी अंत कर दिया। वहां कम्युनिस्टों से इतनी नफरत हुई कि लेनिन-स्टालिन की प्रतिमाओं को भी लोगों ने ध्वस्त कर दिया। चीन की माओवादी क्रांति से चीन में एकदलीय तानाशाही स्थापित है, मार्क्सवादी और माओवादी व्यवस्था ने ऐसी तानाशाही को जन्म दिया जिसमें न अभिव्यक्ति की आजादी है, न अन्य विचारों को बर्दाश्त किया जा सकता है, इन विचारों में लोकतंत्र का भी कोई स्थान नहीं है। चीन भी चाहे माओवादी मुखौटा लगा रखे, लेकिन वह भी खुली आर्थिक व्यवस्था को अपना कर ही प्रगति कर सका है। शक्ति के द्वारा दूसरे कमजोर देशों पर काबिज होता रहा है। चीन ने तिब्बत को हड़पा, अब भारत की सीमा में घुसपैठ करने की साजिश कर रहा है। साम्यवादी इतिहास के पन्नों में मनुष्य के खून के छींटे ही दिखाई देते है। भारत के कम्युनिस्टों के इतिहास में गद्दारी का चरित्र भी है। आजादी के संघर्ष में कम्युनिस्टों ने देश भक्तों की पीठ में छुरा घोंपने का काम किया। अब 1962 में चीन ने भारत की दोस्ती का खून करते हुए अचानक हमला किया, तो इन मार्क्सवादियों ने एजेन्ट की तरह चीन की पैरवी की। कुल मिलाकर साम्यवादी विचारों से बनी शासन व्यवस्था से तानाशाही, अत्याचार, विरोधी विचारों का दमन, विरोधियों को कुचलना और लोकतांत्रिक व्यवस्था को तहस नहस करना ही रहा है। जब पं. बंगाल में 35 वर्षों तक साम्यवादी शासन रहा, तो वहां भी कमोवेश ऐसी ही स्थिति रही। केरल, त्रिपुरा भी साम्यवादी सरकारों की त्रासदी भुगत रहे है। दुनिया ने साम्यवादी विचारों को नकार दिया है। भारत में भी इनका राजनीतिक अस्तित्व समाप्त होने के कगार पर पहुंच चुका है, अब सीताराम येचुरी, करात आदि नेताओं की आवाज को मीडिया भी महत्व नहीं देता। कहावत है कि मरता-क्या न करता, यही कारण है साम्यवादी विचारों को नकारे जाने से कामरेड तिलमिलाये हुए हैं।
केरल की कम्युनिस्ट विजयन सरकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के कार्यकर्ताओं की हत्या करवा रही है, बताया जाता है कि करीब दो सौ संघ-भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्या इस वर्ष हुई है। इस दमन के बाद भी राष्ट्रवादी विचारों को केरल की जनता आत्मसात कर रही है। छोटा राज्य होने के बाद भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्य और विचार वहां के सुदूर गांवों तक पहुंच गया है। साम्यवादी शासन व्यवस्था भी लड़खड़ा रही है, केरल की जनता साम्यवादी गुलामी से मुक्त होना चाहती है। केरल के प्रथम मुख्यमंत्री मार्क्सवादी नेता एम.एस. नंबूदरीपाद हुए। अभी तक वहां बारह मुख्यमंत्रियों की सरकारें रही है। वहां कम्युनिस्ट, कांग्रेस मोर्चा की भी सरकारें बनीं। यहां मुस्लिम लीग को भी कांग्रेस ने अपने गठजोड़ में शामिल किया। घोर मजहबी साम्प्रदायिकता को गले लगाने वाली कांग्रेस की राजनीति से सेकुलर शब्द को तिरोहित कर देना चाहिए। करीब तीन करोड़ 18 लाख की जनसंख्या वाला केरल अपनी सांस्कृतिक विरासत को समेटे हुए है। केरल में गणित और ज्योतिष का विकास आर्य भट्ट की रचना आर्यभटीय के आधार पर हुआ है। गणित का इतिहास यह मानता है कि कलन (केलक्यूलस) का अविष्कारक आई जेक न्यूटन और लेवनीज नहीं होते हुए केरल के गणित वैज्ञानिक है। पौराणिक कथा के आधार पर माना जाता है परशुराम ने अपना परशु (फरसा) समुद्र में फेंका, उसके कारण उस आकार की भूमि समुद्र से बाहर निकली, जिसे केरल कहा गया। केरल की संस्कृति हजारों वर्ष पुरानी है, यह वहीं हिन्दू संस्कृति है जिसके प्रवाह को आज तक कोई बाधित नहीं कर सका। मलयालम भाषा की उत्पत्ति भी संस्कृत से हुई है। ‘राम चरितम’ को मलयालम का आदि काव्य माना जाता है। रामकथा, कृष्ण भजनों की गूंज केरल के हर हिन्दू के घर में सुनाई देती है। साहित्य, संस्कृति और गौरवशाली इतिहास के तहस नहस करने की साजिश कम्युनिस्टों ने की। मुस्लिम लीग के कारण केरल के कई मुस्लिम युवक आईएस के जिहादी आतंकवादी बनने सीरिया गए है। केरल को मिनी पाकिस्तान बनाने की साजिश चल रही है।
केरल की सांस्कृतिक ऊर्जा के कारण चाहे वहां कम्युनिस्टों का शासन हो, लेकिन सांस्कृतिक अवधारणा का प्रभाव वहां के जनमन में है। राजनीतिक दृष्टि से भी केरल की जनता साम्यवादी विचारों को दफनाना चाहती है, वहां भी राष्ट्रीय विचारों की विजय पताका फहराने के लिए जनता उत्सुक है, ये विचार जितने प्रभावी होंगे, उतना ही कम्युनिस्ट सरकार का दमन बढ़ेगा। दमन का शासन अधिक समय तक नहीं रह सकता। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक दमन का सामना करते हुए, बलिदान देते हुए अपने विचार और कार्य पर न केवल अडिग हैं, बल्कि केरल का हर व्यक्ति राष्ट्रवादी विचारों के साथ खड़ा दिखाई देता है।
विरोधी तत्वों के आतंक और हिंसा का सामना करने के लिए अब आम लोग भी आगे आ रहे है। यही कारण है कि भाजपा की जन रक्षा रैली में जन सैलाब उमड़ा। राजनीतिक पंडितों को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि कम्युनिस्टों के लालगढ़ में भाजपा प्रभावी दस्तक देने में भी सफल हो रही है। रैली में उमड़े जनसैलाब से केरल के राजनीतिक भविष्य का आंकलन होने लगा है। जन रक्षा रैली का नेतृत्व चाहे भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने किया हो या मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, शिवराजसिंह आदि के नेतृत्व में जन सैलाब उमड़ा हो, यह तो लगता है कि पश्चिम बंगाल की तरह केरल की जनता भी कम्युनिस्ट शासन को उखाड़ फेंकना चाहती है। जिस तरह भगवान परशुराम ने अपने परशु से केरल की उत्पत्ति की, वहीं सांस्कृतिक परशु की शक्ति से साम्यवादी विचार केरल में भी पराजित हो चुके हैं। कोई भी विचार जनता के नकारे जाने के बाद किसी गुफा में छिपकर बच नहीं सकता। अब भारत में कम्युनिस्टों का अस्तित्व केवल केरल, त्रिपुरा में शेष है। पश्चिम बंगाल में तो अब कम्युनिस्ट तीसरे- चौथे नंबर पर सिमट गए है। जिन विचारों में लोकतंत्र नहीं हो, जो हिंसा में विश्वास करते हों, जिन विचारों में राष्ट्रीय सरोकार नहीं हों, ऐसे साम्यवादी विचारों की प्रासंगिकता समाप्त हो गई है, इन विचारों की भूमि से तानाशाह ही पैदा हुए हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)