राष्ट्रपति की सेवानिवृत्ति पर चिंतन

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अरुण जेटली

राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी कुछ घंटों में पद से मुक्त हो रहे हैं। उनका राष्ट्रपति पद पर पहुंचना एक राजनेता के जीवन का सर्वोच्च बिंदु है। भारत ने उनके जैसे सिर्फ कुछ नेता देखे हैं, जिनमें यह क्षमता थी कि अपने राजनैतिक दल के प्रति प्रतिबद्धता और विभिन्न पदों पर बैठने के बावजूद एक ‘स्टेट्समैन’ के रूप में उभरे। प्रणब दा ऐसे कुछ नेताओं में से हैं, जो जिन पदों पर बैठे उन्हें सुशोभित किया।

मेरा उनसे पहला संपर्क उस समय हुआ जब वाजपेयी सरकार के समय वे डॉ. मनमोहन सिंह के साथ विपक्ष की भूमिका में थे। वे महत्वपूर्ण स्थायी समिति के अध्यक्ष रहे, जिसने कई कानूनों को पारित करने की जिम्मेदारी निभाई। उनमें से तीन महत्वपूर्ण संविधान संशोधन थे। पहला, उस कानून से संबंधित था जिसने कई राज्यों में आबादी में परिवर्तन के बावजूद राज्य विधान सभाओं और लोकसभा की सीटों को अपरिवर्तित करने से था। दूसरा, दल–बदल विरोधी कानून से था और तीसरे का संबंध केंद्र और राज्यों की मंत्रीपरिषद् के आकार को सीमित करने से था। उनकी समिति ने सरकार द्वारा निर्मित प्रारूप में सुधार कर इन संशोधनों पर शीघ्रता से विचार किया। उन्होंने इन मुद्दों पर आम सहमति बनाई। विपक्ष में रहने के बावजूद वे कभी भी बाधा नहीं बने। वे संसदीय प्रणाली की उपज थे और वृहद राष्ट्र हितों के लिए संसद का उपयोग किया।

उनके बाद के वर्षों में सांसद और बाद में नेता प्रतिपक्ष के रूप में मैंने बहुत ही गहराई से उनका अवलोकन किया। उनकी यह नैसर्गिक प्रतिभा थी कि वे दलगत वाद–विवाद से ऊपर रहते थे। संसद में वे सदैव एमिकस करिय (न्याय की मदद करने वाला) के रूप में बहस करते थे। वे सदन के मित्र थे, न कि एक दल के नेता। उनकी यह योग्यता उनके विचारों के प्रति आम सहमति बनाने में मदद करती थी। वह शायद ही कभी क्रोधित होते थे और कभी होते भी थे, तो अगले क्षण मुस्कराकर उसकी भरपाई भी कर देते थे।

उनके पास गहरा इतिहासबोध था, जिसमें संवैधानिक औचित्यता की दृष्टि मिली हुई थी। उनके अंदर का लोकतंत्रवादी सरकार और विपक्ष को मुख्य मुद्दों पर एक साथ काम करने के लिए प्रेरित करता था। किस उपयुक्त रास्ते का चयन करना है, इसके लिए वे संसदीय और न्यायिक उद्धरणों का हवाला देते थे।
राष्ट्रपति के रूप में, वह निर्विवाद रूप से संविधान के अभिभावक थे। उन्हें एहसास था कि लोकतंत्र में केवल एक शक्ति केंद्र हो सकता है, अर्थात् निर्वाचित सरकार और प्रधान मंत्री। इसलिए, वे अपने राष्ट्रपति पद के दौरान दो अलग–अलग सरकारों के साथ सक्रियतापूर्वक समान रूप से जुड़े रहे। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि मंत्रिपरिषद के सभी फैसले संवैधानिक मर्यादा के अनुरूप होनी चाहिए। कुछ अवसरों पर, वे निर्णयों के अनुमोदन से पहले संतुष्ट होना चाहते थे। मुझे आम तौर पर उसके साथ बातचीत करने के लिए भेजा जाता था। वह हमेशा संवैधानिक आवश्यकताओं और निष्पक्षता हेतु तथ्यों के साथ अच्छी तरह तैयार रहते थे। मंत्री–परिषद द्वारा अनुमोदित सलाह को इन तथ्यों से संतुलित करना पड़ता था। यह नाजुक संतुलन उन्होंने अपने पूरे कार्यकाल में बनाए रखा। उन्होंने मंत्रिपरिषद की सलाह को हमेशा स्वीकार किया।

प्रणब दा में एक अनोखा आकर्षण रहा, जिसके चलते उन्हें कई प्रशंसक मिले। उनसे सभी वार्ताकार सहज रहे। उनका कद लगातार बढ़ता गया। एक वरिष्ठ मंत्री से राष्ट्रपति के रूप में उनका उत्तरदायित्व अनुकरणीय था। राष्ट्रपति के तौर पर वे पूरी तरह से गैर–पक्षपातपूर्ण थे और खुद को एक सलाहकार और अपनी सरकारों के लिए मार्गदर्शक के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने सरकार के कार्यक्रमों का श्रीगणेश किया और उनके पैरोकार बन गए। उन्होंने एक बार मुझसे कहा था कि उन्हें संसद के समक्ष वस्तु एवं सेवा कर हेतु संवैधानिक सुधार प्रस्तुत करने का विशेष दायित्व मिला। वह राष्ट्रपति के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान संविधान संशोधन को स्वीकृति देना चाहते थे, जब उन्होंने ऐसा किया तो इससे उन्हें बहुत संतुष्टि मिली।

वह एक महान कद के साथ राष्ट्रपति भवन से दायित्वमुक्त हो रहे हैं। वह अब देश को सलाह देने और मार्गदर्शन करने की एक बड़ी भूमिका में रहेंगे, जिसमें वह हमेशा से रहे हैं।

(लेखक केंद्रीय वित्त एवं रक्षा मंत्री हैं)