कांग्रेस बनाम जनसंघ

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– दीनदयाल उपाध्याय

(गतांक में प्रकाशित लेख का दूसरा एवं अंतिम भाग)

हमारी तीसरी मर्यादा धर्म की है। धर्म मज़हब नहीं है वरन् उससे ऊपर है। सहिष्णुता का सिद्धांत हम सदैव से मानते हैं। हम मजहबी राज्य (पाकिस्तान की तरह) की भी कल्पना नहीं करते, न हम धर्मविहीन राज्य ‘सेक्यूलर’ को समझ सकते हैं। हमारी इस मर्यादा के अनुसार प्रत्येक को अपने धर्म को मानने का अधिकार होगा, किंतु राज्य ‘न्याय’ का होगा। आज धर्मविहीन राज्य का नारा लगाने वाले नैतिकता तक को लोगों के हृदयों से निकाल दे रहे हैं, जो बहुत घातक है। देश की सभी समस्याओं का हल आध्यात्मिक तथा धार्मिक दृष्टि से बहुत सरलता से हो सकता है और महान् कार्य इसी प्रेरणा से हुए भी हैं। स्वतंत्रता का भी आदोलन तब तक जोर नहीं पकड़ सका, जब तक उसमें आध्यात्मिकता नहीं आई। हम सब मर्यादा की रक्षा करना चाहते हैं।

जनसंघ केवल सुरक्षा उद्योगों का राष्ट्रीयकरण करना चाहता है। शेष सभी उद्योग वह व्यक्तियों के हाथों में सौंप देना चाहता है किंतु वह इस बात का ध्यान रखेगा कि वे पूंजीपति बनकर अपने हाथ में व्यापार का एकाधिकार न कर लें। साथ-ही-साथ आज की पूंजी की कमी को दूर करने के लिए जिसकी कि बड़े-बड़े उद्योगों में आवश्यकता है हम कुटीर उद्योग धंधों का विकास करना चाहते हैं, जिसमें कि थोड़ी पूँजी में काम चल सकेगा और पूंजीपतियों को आश्वासन देने से भी मुक्ति मिल सकेगी। साथ-ही-साथ कुटीर धंधों के विकास से हम अपनी बेकारी की समस्या को भी दूर कर सकेंगे।

भारतीय जनसंघ विरोध के लिए विरोध नहीं करता। वह एक रचनात्मक कार्यक्रम लेकर आगे आया है और इसलिए उसे जनता का सहयोग अवश्य प्राप्त होगा।

पांच वर्ष के अंदर देश में जो कार्य किया है, उसके लिए कांग्रेस वोट नहीं माँगती। कांग्रेस के अध्यक्ष पंडित नेहरू ने सोचा कि पिछले चुनावों में जब हमारी सरकार बनी थी तो हम देश के अंदर एक तूफान अंग्रेजों के विरुद्ध खड़ा करते थे और उस तूफान के उठने पर ही हमारी सरकारें बनती थीं। आज भी उन्होंने सलाह दी अपने कार्यकर्ताओं को देश के अंदर तूफान पैदा करने के लिए। वह तूफान देश में सांप्रदायिकता के विरोध में करने के लिए सलाह दी, न कि वे अगले पांच वर्ष क्या करने वाले हैं, इस पर विचार के लिए। पंडित नेहरू केवल धमकियों और विरोध को छोड़कर रचनात्मक कार्य नहीं रख सकते। परंतु पंडित नेहरू को समझना चाहिए कि तूफान पैदा करने के लिए देश के पत्ते-पत्ते को हिलाना पड़ेगा। देश की 35 करोड़ जनता के हृदय में तूफान उत्पन्न करना पड़ेगा। केवल ताड़ के दो पत्तों के हिलने से तूफान नहीं आ सकता। यदि यही वे करना चाहते हैं तो उन्हें राम, गुरु गोविंद सिंह, रहीम, रसखान, शिवाजी के विरुद्ध तूफान उत्पन्न करना पड़ेगा।

मुसलमान कांग्रेस रूपी उस नाव में न बैठें, जिसमें छेद हो गया है। जिस नाव को हिंदुओं ने अपना खून देकर बनाया था, उस नाव को डुबोने के लिए अब वे ही तैयार हैं। अत: उसके साथ चलने में मुसलमानों को कोई फायदा नहीं।

श्री टंडनजी को आज के ही कांग्रेसियों ने अपना नेता बनाया था, परंतु चुनाव जीतने के लिए उन्हें लातों से मार दिया। तो जो लोग अपने नेता को चुनाव जीतने के लिए ठुकरा देते हैं, वे ही चुनाव जीतने पर मुसलमानों को भी ठुकरा देंगे।

देश के प्रति जो गद्दारी करेगा, उसे खत्म कर दिया जाएगा, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान। पंडित नेहरू का विरोध भी हम इसलिए करते हैं कि वे अंग्रेजियत को बनाए रखना चाहते हैं, जो देश के लिए हितकर नहीं है। संस्कृति किसी मजहब की नहीं होती, देश की होती है। यदि मज़हब की संस्कृति होती तो अरब, फारस आदि की एक संस्कृति होती, परंतु ऐसा नहीं है। हिंदुस्थान के मुसलमान यदि राम-कृष्ण को अपना आदर्श मानते, गंगा-जमुना को अपनी पवित्र नदी मानते हैं तो उनका मजहब खतरे में नहीं पड़ जाता। महाकवि रहीम, रसखान तो मुसलमान ही थे, परंतु इस देश का वे गुणगान करते रहे तो हमने कभी नहीं कहा कि उनको हिंदी साहित्य से निकाल दिया जाए। अपितु उनका आदर किया। हम चाहते हैं कि हमारे देश के मुसलमान रहीम बनकर रहें। मैं विश्वास दिलाता हूं कि उनकी रक्षा, उनका उत्थान भारत की तैंतीस कोटि जनता हमेशा करेगी। (समाप्त)

(पांचजन्य, जनवरी 3, 1952)