विकेंद्रित अर्थव्यवस्था के द्वारा ही मानव मूल्यों की रक्षा संभव

| Published on:


दीनदयाल उपाध्याय

भारतीय जनसंघ के पास एक स्पष्ट आर्थिक कार्यक्रम है। किंतु उसका स्थान हमारे संपूर्ण कार्यक्रम में उतना ही है, जितना भारतीय संस्कृति में ‘अर्थ’ का है। पाश्चात्य संस्कृति भौतिकवादी होने के कारण अर्थप्रधान है। हम भौतिकवाद तथा अध्यात्मवाद दोनों का समन्वय करके चलना चाहते हैं। अत: यह निश्चित है कि जनसंघ उन अर्थशास्त्रियों एवं दलों से, जो ‘अर्थ’ के सामने जीवन के प्रत्येक मूल्य की उपेक्षा करके चलाना चाहते हैं, इस मामले में सदैव पीछे रहेगा। जनसंघ हृदय, मस्तिष्क और शरीर तीनों का सम्मिलित विचार करता है। इसी कारण कुछ लोग जनसंघ पर यह आरोप भी लगाते हैं कि जनसंघ आध्यात्मिकता की उपेक्षा करता है। महर्षि अरविंद आदि आध्यात्मिक महापुरुषों की भाषा नहीं बोल पाता है। इन दोनों प्रकार के आरोपों का स्वागत करते हैं और इतना ही कहना चाहते हैं कि जो अर्थ समाज की धारणा के लिए आवश्यक है, जितने मात्र से व्यक्ति अपना भरण-पोषण करके अन्य श्रेष्ठ मूल्यों की प्राप्ति के लिए प्रयास कर सकें, उतने को ही हमने अपने कार्यक्रम में स्थान दिया है।

यह संघर्ष सही नहीं है

आज विश्व में दो गुटों का संघर्ष चल रहा है। एक ओर अमरीका के नेतृत्व में पूंजीवादी देश हैं, तो दूसरी ओर रूस के नेतृत्व में समाजवादी अथवा साम्यवादी गुट। यद्यपि हमारी विदेशी नीति तटस्थ है, पर वैचारिक दृष्टि से हमें उनमें से एक गुट अर्थात् समाजवादी गुट में सम्मिलित होने के लिए तैयार किया जा रहा है। जनसंघ चाहता है कि विदेश नीति के समान ही हमें वैचारिक क्षेत्र में भी तटस्थ रहना चाहिए। जो लोग पश्चिमी विचारधारा में पले हैं और उन विचारधाराओं में प्रयुक्त शब्दावली के आधार पर ही दुनिया की सब चीजों को समझ सकते हैं, उनका कहना है कि भारत में भी पूंजीवाद और समाजवाद का संघर्ष चल रहा है। वास्तव में यह विश्व के वैचारिक संघर्ष की प्रतिछाया मात्र है, उसका अस्तित्व हमारे यहां है नहीं। हमारा कहना है कि निजी क्षेत्र और सार्वजनिक क्षेत्र के संघर्ष की चर्चा यहां उठाना निरर्थक और निराधार है। हमें उससे ऊपर उठकर समस्याओं की ओर देखना चाहिए।

मनुष्य व्यवस्था से पहले

यदि हम सूक्ष्म विश्लेषण करें तो दिखाई पड़ेगा कि दोनों के दोषों का मूल कारण एक है। उनकी जड़ें अलग-अलग नहीं हैं। अतः हम यह खोजें कि बुराई कहां है? बुराई का वास्तविक कारण व्यवस्था नहीं, मनुष्य है। मनुष्य ही प्रथम आता है। बुरा व्यक्ति अच्छी से अच्छी व्यवस्था में घुसकर बुराई फैला देगा। समाज की प्रत्येक परंपरा और व्यवस्था किसी-न-किसी अच्छे व्यक्ति द्वारा प्रारंभ की गई। परंतु उसी अच्छी परंपरा पर जब बुरा व्यक्ति आ बैठा, तो वहां बुराई आ गई। राज्य संस्था को ही लें। क्या रामचंद्रजी राजा नहीं थे? जहां उन्होंने अपने श्रेष्ठ जीवन से राज्य संस्था के गौरव में वृद्धि की तो अनेकों ने अपने दोषों से उसी को इतना अपवित्र कर दिया कि कई बार राज्य संस्था का नाम लेने भर से ही चिढ़ उत्पन्न होती है। इसी दृष्टि से निजी क्षेत्र तथा सार्वजनिक क्षेत्र के संघर्ष की ओर देखें। इसकी क्या गारंटी है कि यदि कोई व्यक्ति निजी क्षेत्र में स्वतंत्र रहकर बुराई करता है, तो उसके स्थान पर राज्य का व्यक्ति बैठा देने पर बुराई न फैलेगी? अतः हमारा ध्यान व्यक्ति की कर्तव्य भावना को जगाने पर केंद्रित होना चाहिए था।

आर्थिक मनुष्य की भ्रामक कल्पना

परंतु हुआ क्या? व्यक्ति की ओर दुर्लक्ष्य और बाह्य व्यवस्था पर जोर दिया गया। निर्जीव व्यवस्था के सामने चेतन मनुष्य नगण्य माना गया। व्यक्ति के अंदर विद्यमान सद्गुणों के विकास करने के स्थान पर उनका ह्रास करनेवाले उपायों का ही अवलंबन किया गया। राष्ट्र निर्माण की योजनाएं बनानेवालों ने इस तथ्य को सर्वथा भुला दिया कि प्रयास करने पर मनुष्य मानव से देवता बन सकता है। उन्होंने मानव का गर्हित स्वरूप। ही सामने लाकर रखा। वे पूंजीवाद के आधार में एक ऐसे मनुष्य की कल्पना करके चलते हैं, जो विशुद्ध आर्थिक मनुष्य है। यह केवल एक कल्पना है। ऐसा कोई व्यक्ति न कभी पैदा हुआ है और न होगा। ऐसा कभी नहीं हो सकता कि मनुष्य का चाहे वह पूंजीपति हो या मज़दूर, प्रत्येक कार्य अर्थ की दृष्टि से होता हो। वह अर्थ का विचार भले ही करता होगा, पर उसके कार्य की प्रेरणा अर्थ ही नहीं हो सकती। अर्थशास्त्र के नियमों की कसौटी पर यदि मानवी व्यवहार को कसा जाए तो आपको कहीं भी आर्थिक मनुष्य के दर्शन नहीं होंगे, बल्कि उससे कहीं विशाल संपूर्ण मानव का अस्तित्व दिखाई देगा।

पूंजीवाद का आधार यदि आर्थिक मनुष्य माना गया तो उसकी प्रतिक्रियास्वरूप समाजवाद ने सामूहिक मनुष्य की कल्पना की। मनुष्य को एक प्रकार मान लिया। उस सामूहिक मनुष्य की आर्थिक आवश्यकताओं को पूर्ण करने का लक्ष्य ही सामने रखा। उसके जीवन की अन्य आवश्यकताओं की पूरी उपेक्षा कर दी। इन दोनों व्यवस्थाओं में मनुष्यता का विचार नहीं है।

मनुष्य पुर्जा बन गया

मनुष्यता की व्याख्या कठिन है। अनेक बातें समान होते हुए भी प्रत्येक मनुष्य में कुछ न कुछ विशिष्टता है। उसकी विविधताओं का विचार आवश्यक है। भारतीय संस्कृति ने एक विचार किया कि मनुष्य इन विविधताओं का स्वाभाविक विकास करते हुए भी आंतरिक एकात्मता की अनुभूति करता चले। व्यक्ति की स्वतंत्रता सर्वप्रथम है। जब टाटा-बिड़ला व्यक्ति स्वातंत्र्य या मुक्त प्रेरणा की बात करते हैं, तो उसका अभिप्राय होता है उनकी अपनी स्वतंत्रता, उनके कारख़ानों में गुलाम बने हुए लाखों-करोड़ों मज़दूरों की स्वतंत्रता नहीं। हमें तो लाखों-करोड़ों मानवों की स्वतंत्रता का विचार करना है। शक्ति, चाहे वह राजनीतिक हो या आर्थिक, केंद्रीकरण से व्यक्ति-स्वातंत्र्य समाप्त हो जाता है। पूंजीवाद और समाजवाद दोनों केंद्रीकरण के हामी हैं। पूंजीवाद में धीरे-धीरे मुक्त प्रतियोगिता समाप्त होकर आर्थिक शक्ति पर कुछ व्यक्तियों का एकाधिकार स्थापित हो जाता है। अमरीका आदि पूंजीवादी देशों में जो बड़े-बड़े औद्योगिक साम्राज्य बसे हुए हैं, उनकी क्या स्थिति है? आज जितने न्यास विरोधी क़ानून (Anti Trust Laws) अमरीका में बनाने पड़े हैं, उतने कहीं भी नहीं हैं। वहां व्यवहार व्यक्तियों के साथ नहीं, फ़ाइलों के साथ होता है। आर्थिक शक्ति को राज्य के हाथों में सौंपनेवाले समाजवाद में भी ऐसा ही होता है। राज्य की नौकरशाही भी यही करती है। परिणाम हो रहा है कि जीवन यंत्रवत् होता जा रहा है। मनुष्यों का स्थान फ़ाइलें ले रही हैं। मानवता समाप्त होती जाती है। दोनों व्यवस्थाओं में मनुष्य का विचार होता है तो परिमाणात्मक आधार पर, न कि गुणात्मक आधार पर।
मानववाद चाहिए
जब तक एक-एक व्यक्ति की विशिष्टता-विविधता को ध्यान में रखकर उसके विकास की चिंता नहीं करेंगे, तब तक मानवता की सच्ची सेवा नहीं होगी। समाजवाद और पूंजीवाद ने मनुष्य को व्यवस्था के निर्जीव यंत्र का एक पुर्जा मात्र बना डाला। एक स्वतंत्र जुलाहे को समाप्त कर उसे विशाल कारख़ाने का मज़दूर बना दिया गया। बजाज (किराने की दुकान) के स्थान पर एक विभागीय स्टोर्स बना दिया गया। दर्जी के स्थान पर रेडीमेड कपड़ा लाकर रख दिया। मनुष्य यानी एक जंतु जो आठ घंटे यंत्रवत् मजूरी करे और सोलह घंटे खाए। कार्य और जीवन के बीच एक दीवार खड़ी हो गई। पश्चिम के कई देशों में कहा जाता है कि पांच दिन काम के और दो दिन छुट्टी के। उन दो दिनों में केवल मस्ती, केवल खाना-पीना और मौज, काम की बात भी नहीं। अर्थात् वे पांच दिन कमाई करते हैं और दो दिन जीवित रहते हैं। अतः हमें मनुष्य-मनुष्य के कमाई के साधनों का इस प्रकार निर्धारण करना होगा कि उसके कार्य और वास्तविक जीवन के बीच कोई खाई न रहे। हाड़-मांस के मनुष्य, जिसके पास हृदय, मस्तिष्क और शरीर तीनों की भूख है, का ही विचार करना होगा। अन्यथा कार्य के आठ घंटों का जो अमानवी प्रभाव होता है, उसे समाप्त करने में ही उसके शेष सोलह घंटे व्यतीत हो जाते हैं। उनके समाप्त होते ही वह पुनः उन आठ घंटों के चक्र में फंस जाता है।

विज्ञान और मानवता

अत: इन पूंजीवाद और समाजवाद के चक्कर से मुक्त होकर मानववाद का विचार करें। मानव जीवन के समस्त पहलुओं का विचार कर आर्थिक क्षेत्र में उत्पादन, वितरण और उपभोग के साधन तथा व्यवस्था बनाएं। फिर उसके लिए विज्ञान का उपयोग करें। यह आवश्यक नहीं कि हम विज्ञान के पुराने प्रयोगों को ज्यों-का-त्यों अपना लें। आज हम पश्चिम की तकनीक की आंख मूंदकर नक़ल कर रहे हैं। इसे बंद करना होगा और तकनीक का प्रयोग मानवता के विकास के लिए करना होगा।

विकेंद्रित अर्थव्यवस्था

इसके लिए विकेंद्रित अर्थव्यवस्था चाहिए। स्वयंसेवी क्षेत्र को खड़ा करना होगा। यह क्षेत्र जितना बड़ा होगा, उतना ही मनुष्य आगे बढ़ सकेगा, मनुष्यता का विकास हो सकेगा. एक मनुष्य दसरे मनुष्य का विचार कर सकेगा। प्रत्येक मनुष्य की व्यक्तिशः आवश्यकताओं और विशेषताओं का विचार करके उसे काम देने पर उसके गुणों का विकास हो सकता है। यह विकेंद्रित अर्थव्यवस्था भारत ही संसार को दे सकता है। हम नए सिरे से आर्थिक निर्माण कार्य शुरू कर रहे हैं। अतः हमें यह विकेंद्रित अर्थव्यवस्था खड़ी करने में सुविधा हो सकती है, जबकि दुनिया शायद यह बात आसानी से न कर पाए। क्योंकि यदि एक बार बड़े भारी कारख़ाने का निर्माण हो गया, तो उसे समाप्त करने की बात सोचने से अनेकों व्यावहारिक कठिनाइयां आती हैं। उसके लिए बड़ा साहस बटोरना पड़ता है, भारी उथल-पुथल के लिए तैयार होना पड़ता है। अतः राष्ट्र निर्माण की इस प्रारंभिक वेला में हम अपना पग आगे बढ़ाते समय अच्छी प्रकार विचार करें।

यदि इसी चीज़ को खेती के क्षेत्र में लाकर देखें, तो सहकारी खेती का अंतिम चित्र होगा ग्राम व्यवस्था, उसमें किसान का स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। अभी मैं उत्पादन के प्रश्न को नहीं उठाता। वह दूसरे नंबर पर है। प्रथम बात तो यह है कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता छिन जाने के कारण सुख के स्थान पर दुःख आता चला जाएगा। आर्थिक क्षेत्र में स्वतंत्रता समाप्त हुई तो राजनीतिक क्षेत्र में भी समाप्त हो जाती है। समाजवाद और प्रजातंत्र साथ-साथ नहीं चल सकते। सच्चे प्रजातंत्र का आधार आर्थिक विकेंद्रीकरण ही हो सकता है। अतः सिद्धांततः हमें छोटे-छोटे उद्योगों को ही अपनाना चाहिए।

बेकारी का प्रश्न

अब व्यावहारिक दृष्टि से देखें। हमारी योजनाएं श्रम प्रधान होनी चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को काम मिलना चाहिए। आज की योजनाओं की सबसे बड़ी ख़राबी यह है कि उनमें देश की स्थिति और आवश्यकताओं का विचार नहीं किया गया। पश्चिम हमें बड़ी-बड़ी मशीनें दे रहा है, हम लेते जा रहे हैं। एक ऐसी अर्थव्यवस्था लाई जा रही है, जिसके कारण देश की बेकारी बढ़ती जा रही है। यदि बेकारी कम होने के स्थान पर बढ़ती ही गई तो देश की प्रगति का आधार क्या? यह मैं मान सकता हूं कि बेकारी एकदम दूर नहीं हो सकती, पर योजनाएं बनाने से पहले हमें प्रत्येक व्यक्ति को काम के सिद्धांत को मान्यता देनी पड़ेगी। यदि इसे मान लिया तो योजनाओं की दिशा एवं स्वरूप बदल जाएगा, भले ही बेकारी धीरे-धीरे दूर हो।

राष्ट्रीय आय

आजकल राष्ट्रीय आय का विचार औसत के सिद्धांत के आधार पर किया जाता है, पर यह बहुत बड़ा भ्रम है। राष्ट्रीय आय बढ़ती जाने के बाद भी देश की ग़रीबी बढ़ती जा रही है। यह क्यों? राष्ट्रीय आय के बढ़ने का अर्थ है प्रत्येक व्यक्ति की आय बढ़े। प्रत्येक को काम दिया तो ग़रीबी घटेगी, प्रत्येक की आय में वृद्धि होगी। इससे उत्पादन में भी वृद्धि होगी। यह सत्य है कि कम मनुष्यों का उपयोग करनेवाली बड़ी मशीनों के द्वारा भी उत्पादन बढ़ सकता है, पर वह हमारे देश के लिए उपयुक्त नहीं। गांधीजी कहा करते थे, मैं विशाल उत्पादन चाहता हूं, परंतु विशाल जनसमूह के द्वारा उत्पादन चाहता हूं।

उत्पादन का सही ढंग

अब बड़ी मशीनों के आधार पर जो उत्पादन बढ़ाने का प्रयास चल रहा है, उससे देश में बेकारी तो बढ़ ही रही है, विदेशी ऋण भी बढ़ता जा रहा है। आज हमारे राष्ट्र की पूरी आय का 55 प्रतिशत हम पर ऋण है। बढ़ते हुए विदेशी ऋण के कारण विदेशी मुद्रा विनियम की समस्या खड़ी हो गई है। अतः उसके कारण हमारा नारा उत्पादन करो या मर जाओ’ के स्थान पर निर्यात करो या मर जाओ’ हो गया है। हमारी भावी योजनाएं निर्यात पर आधारित होने के कारण जो चीज हम पैदा करते हैं, उसका भी उपभोग नहीं कर पाते। उदाहरणार्थ, चीनी का हम स्वयंपूर्ण बाज़ार खड़ा कर सकते थे, पर हमें विदेशी मुद्रा की प्राप्ति के लिए चीनी सस्ते मूल्य पर विदेशों में बेचनी पड़ती है। अतः देश में महंगे मूल्य पर बेची जा रही है। अपनी गाय-भैंसों को खली और भूसा न खिलाकर हम विदेशों को भेज रहे हैं और दूध के डिब्बों का आयात कर रहे हैं। वेजिटेबल घी बनानेवाली मशीनों को मंगाते हैं।

आज हम देश की प्रगति का हिसाब मशीनों में लगाते हैं। एक सज्जन ने अमरीका की तुलना में भारत के पिछड़ेपन का उल्लेख करते हुए इस्पात के उपभोग को मानदंड के रूप में प्रस्तुत किया। अतः उन्होंने कहा कि पूरी शक्ति लगाकर अमरीका के बराबर पहुंचना चाहिए, पर वे यह भूल गए कि अब तो प्लास्टिक का युग प्रारंभ हो गया है। अगर पांच-दस साल में हम इस्पात के उत्पादन में अमरीका के बराबर पहुंच भी गए तो आर्थिक प्रगति का मापदंड प्लास्टिक का उपभोग हो जाएगा और हम पुन: िपछड़े रह जाएंगे। अतः हम जीवन स्तर का ठीक निश्चय करें।

इसका विचार करके ही हम उत्पादन के साधनों का निश्चय करें। यदि ज्यादा आदमियों का उपयोग करनेवाले छोटे-छोटे कुटीर उद्योग अपनाए गए तो कम पूंजी तथा मशीनों की आवश्यकता पड़ेगी, जिससे नौकरशाही का बोझ कम होगा, विदेशी ऋण को भी नहीं लेना पड़ेगा। देश की सच्ची प्रगति होगी तथा प्रजातंत्र की नींव पक्की हो जाएगी।

(-पाञ्चजन्य, मार्च 30, 1959 से साभार)