जीवन का सुख

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पं. दीनदयाल उपाध्याय

प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में सुख की भावना लेकर चलता है। मानव ही नहीं, तो प्राणिमात्र सुख के लिए लालयित है। दुःख को टालना और सुख को प्राप्त करना, यह एक उसकी स्वाभाविक कामना रही है। मनुष्य भी प्राणी है। इसलिए वह सुख चाहता है। तो हमें विचार करना पड़ेगा कि सुख है कहां? किस चीज़ में?

साधारणत: लोग सोचते हैं कि अच्छा भोजन मिला तो सुख प्राप्त होगा। पर यह अच्छा भोजन कैसे मिले, यह किन पर निर्भर है, इसका विचार करें तो पता चलेगा कि इस विषय में हम स्वाधीन नहीं। भोजन संबंधी सुख दूसरों पर निर्भर है। रोटी हमने स्वयं नहीं बनाई, बनानेवाला दूसरा व्यक्ति है। उसने खीर, हलवा अच्छा बनाया तो ठीक, अगर रसोइयों ने ठीक न बनाया तो शक्कर, घी और आटा सब बेकार। इस प्रकार भौतिक सुख के लिए हम दूसरों पर निर्भर रहते हैं, स्वयं पर नहीं। दूसरे लोग बनाते हैं, तब हमें मिलती है। कपड़ा बनानेवाला, सिलनेवाला दूसरा आदमी यानी टेलर मास्टर होता है। उसने कपड़ा ठीक बनाया तो आराम और आनंद प्राप्त होता है। नहीं बनाया तो कठिनाई का अनुभव करना पड़ता है।

जितनी चीजें जगत् में हैं, उनके नाम अर्थ हमें
समाज से मिले हैं। हम भाषा में केवल बोलते
ही नहीं, सोचते भी हैं। लोग समझते हैं कि
सोच प्रकट करने का माध्यम भाषा है। परंतु
सोचने का साधन भी भाषा ही है

एक दरज़ी ने मेरे बनियान का अंदर का हिस्सा दाहिने तरफ़ और बाहर का बाएं तरफ़ लगाया। मैं दरज़ी को मन-ही-मन ग़ाली देता रहा — छोटा सा सुख दरज़ी की ग़लती के कारण समाप्त हो गया। इस प्रकार कपड़े का सुख दरज़ी पर अवलंबित रहता है। वह कपड़ा कसा हुआ बना दे तो तक़लीफ़ होती है। इसी प्रकार बहुत अन्य चीजें हैं। जैसे हम बाल बनवाते हैं। एक नाई ने मेरे अजीब तरह से बाल बनाए। उसने ग़लती की, परंतु मुझे भुगतनी पड़ी। तो इस प्रकार हमारे लिए अनेक लोग काम करते रहते हैं। हम रेल में जाते हैं। गाड़ी चलाने के लिए ड्राइवर, गार्ड, सिग्नलवाला, स्टेशन मास्टर अनेक लोग होते हैं। यात्रा सुखद और सुरक्षित हो, इसके लिए हम जानें या न जानें, अनेक के प्रयत्न के ऊपर हमारा सुख निर्भर है।

अपनी बुद्धि के बारे में हम गर्व करते हैं। परंतु यह बुद्धि कहां से मिली? वह स्वयं की कमाई हुई नहीं है। दूसरों ने ही दी है। हमारे अध्यापक, गुरुजन हमें सोचना सिखाते है। हम एक सौ पांच जल्दी लिख लेते हैं। परंतु बीच में के शून्य का आविष्कार करने के लिए कितने वर्ष लगे होंगे। आज तो वह ज्ञान हमें सहज मिल जाता है। भाषा में हम कविता करते हैं। गाली देते हैं, अपना क्रोध, आनंद प्रकट करते हैं। यह भी हमें समाज के द्वारा मिली है। बहुत सी लड़ाइयां भाषा के कारण बच जाती हैं। भाषा न हो तो? हमें गुस्सा आया तो, हम किसी को ‘बेवकूफ़’कह देते हैं। यदि ‘बेवकूफ’ शब्द न होता तो? गाय को भाषा नहीं आती। इसलिए उसे यदि गुस्सा आ जाए तो वह सींग मारती है। भाषा ने मनुष्य की मार-पीट, मुसीबत बचाई। क्रोध प्रकट करने के लिए हम शब्दों का उपयोग करते हैं। शब्दों को विशेष अर्थ दूसरे ने दिया, हमने नहीं। कुरसी को हम कुरसी क्यों कहते हैं? टेबल क्यों नहीं कहते? समाज के चार लोगों ने जो एज्यूम किया, आरबिट्रेशन किया, उस निर्णय को हम मानते हैं। जितनी चीजें जगत् में हैं, उनके नाम अर्थ हमें समाज से मिले हैं। हम भाषा में केवल बोलते ही नहीं, सोचते भी हैं। लोग समझते हैं कि सोच प्रकट करने का माध्यम भाषा है। परंतु सोचने का साधन भी भाषा ही है। हम ‘आत्मा’शब्द और उसका अर्थ जानते हैं, इससे आत्मा के बारे में हम बहुत सी बातें सोच लेते हैं — ‘आत्मीयता’, ‘अध्यात्म’ इत्यादि, परंतु अंग्रेजी में योग्य शब्द नहीं हैं, इससे उनको असुविधा होती है। अंग्रेजी में सोशल कहते हैं, इसका अर्थ जीव है। इसी प्रकार मन यानी माइंड (mind) नहीं। शब्द सोचने की प्रक्रिया प्रकट करते है। शब्दों में हम शिष्टाचार भी व्यक्त करते हैं ‘नमस्कार’, ‘पहले आप’, ‘कुशल हैं न’ इत्यादि। इस प्रकार शब्दों से व्यवहार बनता है। यह भाषा कौन देता है? अपने आप भाषा न आएगी।

लखनऊ के अस्पताल में एक लड़का था। उसका नाम ‘राम’ रखा था। जब वह बच्चा था, तो भेड़िये उसे ले गए। उन्होंने उसका पालन-पोषण किया। जंगल काटते समय वह लड़का मिला। वह आदमी जैसा प्राणी हाथ-पैर चलाता था, बोलता नहीं था, वह गुर्राता था। मुंह से लप-लप करके खाता था। अस्पताल में वह सात-आठ वर्ष रहा। बाद में मर गया। तो इस प्रकार अनेक बातें हम समाज से सीखते हैं। हम पालथी मारकर बैठते हैं, विदेशी आदमी इस तरह नहीं बैठ सकते। मैं अफ्रीका में गया था। एक स्त्री पैर फैलाकर बैठी थी। मैंने पूछा, ‘यह ऐसे क्यों बैठी है? ‘तो उत्तर मिला कि वहां की स्त्रियां दूसरी तरह से बैठ ही नहीं सकतीं। वैसे ही घोड़े को बैठने में कठिनाई होती है। वह गाय की तरह नहीं बैठ सकता।
मनुष्य अकेला आनंद प्राप्त नहीं कर सकता वह अकेला हंस नहीं पाता। हमने कुछ अच्छा काम किया तो हम दूसरों को दिखाते हैं। एक कहावत है, ‘जंगल में मोर नाचा, किसने देखा।’ दूसरों के साथ ही हम आनंद का अनुभव कर सकते हैं। कुछ आनंद का विषय हो तो हम चार लोगों को बुलाते हैं। वैसा ही देखा जाए तो विवाह का संबंध केवल वधू-वर से नहीं होता, बल्कि विवाह में बाराती चाहिए, सब लोगों को आनंद मनाना चाहिए। तब ही हम संस्कार मानते हैं। तो व्यक्ति का आनंद चार लोगों के साथ होता है।

एक स्त्री थी। उसके पति ने उसे हीरे की एक नई अंगूठी लाकर दी। वह अंगुली में पहनकर गांव में घूमकर आई, परंतु किसी ने उसकी अंगूठी के बारे में नहीं पूछा। किसी के ध्यान में नहीं आया होगा। तो उसने सोचा कि मैं अपनी अंगूठी के बारे में कैसे बताऊं। उसने अपने घर में आग लगा ली। जब लोग आए तो वह अंगूठी वाले हाथ से निर्देश देकर बताने लगी कि यहां पानी डालो, वहां पानी डालो। तब एक ने पूछा कि यह हीरे की अंगूठी कहां से आई? वह बोली ‘अगर यह पहले ही पूछ लिया होता तो इस घर को आग तो न लगती।’

जब आदमी अच्छा गीत गाता है, तब किसी ने दाद न दी तो उसको लगता है कि अपना जन्म बेकार है। एक कवि के कारण मैं परेशान हुआ। रेल में एक शायर मिले। उन्होंने एक शेर सुनाया, मैंने ‘अच्छा’कहा तो स्टेशन आने तक उसने मुझे एक और शेर सुनाकर तंग किया। एक संस्कृत कवि ने लिखा है —

‘अरसिकेषु कवित्व निवेदनम्।
शिरसि मा लिख, मा लिख, मा लिख।’

इस प्रकार देखेंगे तो हमें मालूम होगा कि वास्तव में हमारा भौतिक बौद्धिक, मानसिक और आत्मिक सुख दूसरों पर निर्भर है। अकेलापन मन को कमजोर करता है। बच्चा अकेला हो तो उसे डर लगता है। दो मिलें तो निर्भयता आ जाती है एक और एक मिलकर ग्यारह होते हैं। जब लड़ाई का जमाना था, तब रेल में बहुत भीड़ रहती थी। टिकट भी बंद कर देते थे। मैं प्रवास कर रहा था, तब मैंने देखा कि एक किसान संडास के पास नीचे बैठा है। मैंने उसके अंदर जाकर बैठने को कहा, तब वह बोला, ‘मेरे पास टिकट नहीं है।’ फिर दूसरा भी बोला कि मेरे पास टिकट नहीं है, फिर तीसरा बोला और इस तरह सात-आठ आदमियों के पास टिकट नहीं था। तब वह डर छोड़कर अंदर जा बैठा। दुःख में अनेक साथी हों, तो दुःख कम हो जाता है। दूसरों के सुख से दुःख, दुःख से सुख जिसको होता है, ऐसा आदमी क्वचित मिलेगा।
रॉबिन्सन क्रूसो की एक कहानी बताते हैं कि उसे एक अजीब जंगली मानव मिल गया, तो उसे देखकर वह बहुत आनंदित हुआ और उसने उसका नाम फ्राइडे रखा। जो लोग कहते हैं कि एकांत में सुख है, वह ग़लत है। आदमी तो आदमी को देखना चाहता है।

क्रमशः
-संघ शिक्षा वर्ग, बौद्धिक वर्ग : मैसूर, मई 19, 1967