सिद्धांत और नीतियां : पं. दीनदयाल उपाध्याय

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जनवरी, 1965 में विजयवाड़ा में जनसंघ के बारहवें सार्वदेशिक अधिवेशन में स्वीकृत   दस्तावेज

एक जन

भारतभूमि पर निवास करनेवाला तथा उसके प्रति ममता रखनेवाला विशाल मानव समुदाय एक जन है। अनेक विविधताओं के होते हुए भी उसमें मूलभूत एकता है। विविधताएं विकृति अथवा विघटन की सूचक नहीं, उसके स्वाभाविक विकास का परिणाम एवं सांस्कृतिक समृद्धि की परिचायक हैं। भारतीय जन की एकता की रक्षा करने और उसे बढ़ाने के लिए प्रयत्न करने होंगे। परस्पर आत्मीयता और समानता के भाव जन-एकता के लिए आवश्यक है। इन भावों को विद्यालक रीतियों तथा व्यवस्थाओं को समाप्त करना होगा। ऊंच-नीच तथा छुआछूत को मिटाने के लिए प्रशासनिक और वैधानिक ही नहीं अपितु सुधारवादी एवं आंदोलनात्मक कार्यक्रम भी आयोजित करने होंगे। जाति और वर्ग के आधार पर समाज में प्रतिष्ठा की कल्पना और उस आधार पर भेदभाव नहीं करना चाहिए। सार्वजनिक मंदिरों तथा उपासनागृहों में सबको बिना किसी भेदभाव के दर्शन का अधिकार है।

सदियों से अभिशप्त, शिक्षा तथा संस्कार की दृष्टि से पिछड़े और आर्थिक रूप से अभावग्रस्त वर्गों को आगे लाने के लिए विशेष सुविधा देनी होगी। बिना उसके उनके लिए सबके साथ कंधे से कंधा मिलाकर प्रगति की राह पर चलना संभव नहीं होगा। किंतु यह ध्यान रखना चाहिए कि पिछड़ेपन में लोगों का निहित स्वार्थ न बन जाए तथा जातिगत भेद मिटने के स्थान पर और रूढ़ न हो जाए।

भारत की राष्ट्रीय एकता और सुरक्षा को जनसंघ सर्वोपरि प्राथमिकता देता है। राष्ट्रीय निष्ठाओं को बलवती बनाने के भावात्मक प्रयत्नों से ही राष्ट्रीय एकता को पुष्ट किया जा सकता है

महिलाओं की सामाजिक, शैक्षणिक तथा आर्थिक अयोग्यताओं को दूर करने के लिए विशेष प्रयास हों, जिससे वे घर, समाज तथा राष्ट्र के प्रति अपने दायित्वों का भली-भांति निर्वाह कर सकें। जनजीवन के प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं को समान अवसर मिले। परदा, दहेज, बाल-विवाह, विषम-विवाह आदि कुरीतियों को समाप्त करने के लिए सुधारवादी कार्यक्रम अपनाने होंगे।

मातृत्व की प्रतिष्ठा भारतीय संस्कृति की प्रतिष्ठा है। मातृ-कल्याण के कार्यक्रम सामाजिक सुरक्षा के महत्त्वपूर्ण अंग होने चाहिए। वेतन और भृति में स्त्री और पुरुष दोनों के समान स्तर रखे जाएं।
भारत के सभी जनों के विवाह, उत्तराधिकार, दत्तक विधान आदि का नियमन करने के लिए एक ही व्यवहार विधि होनी चाहिए।

एक संस्कृति

एक भूमि के ऊपर एक जन के रूप में जीवित भारतीय समाज ने आसेतु हिमाचल तक जिस संस्कृति का विकास किया है, वह एक है। भारत जैसे विशाल देश में यह स्वाभाविक है कि विभिन्न प्रादेशिक, स्थानीय अथवा जातिगत जीवन पद्धतियों का विकास हो। भारतीय संस्कृति में उन सबका समन्वय हुआ है। यह कभी वाद या पंथ-विशेष से बंधी नहीं रही। परंतु वे सभी भारतीय राष्ट्र के विशाल कुटुंब के अंग रहे हैं और भारतीय संस्कृति के विकास में उन सबने भाग लिया है। इसकी धारा वैदिक काल से अब तक अविच्छिन्न रूप में प्रवाहित चली आती है। समय-समय पर विभिन्न जातियों, पंथों और संस्कृतियों के संपर्क में आने पर इसने उनको इस रूप में आत्मसात् कर लिया कि वे इसके मूल प्रवाह के साथ अभिन्न हो गईं। यह भारतीय संस्कृति भारत के समान एक और अखंड है। मिली-जुली संस्कृति की चर्चा तर्क विरुद्ध ही नहीं, प्रत्युत भयावह भी है, क्योंकि वह राष्ट्रीय एकता को क्षीण कर विघटनात्मक प्रवृत्तियों को पुष्ट करती है।

एक राष्ट्र

भारत एक प्राचीन राष्ट्र है। स्वतंत्रता प्राप्ति से इसके चिरकालीन इतिहास में एक नवीन अध्याय आरंभ हुआ है, किसी नए राष्ट्र का जन्म नहीं। स्वभावतः भारतीय राष्ट्रवाद का आधार संपूर्ण भारत एवं इसकी सनातन संस्कृति के प्रति निष्ठा ही हो सकता है।

भारत की राष्ट्रीय एकता और सुरक्षा को जनसंघ सर्वोपरि प्राथमिकता देता है। राष्ट्रीय निष्ठाओं को बलवती बनाने के भावात्मक प्रयत्नों से ही राष्ट्रीय एकता को पुष्ट किया जा सकता है तथा विघटन और विच्छेद की प्रवृत्तियों से रोका जा सकता है। प्रत्येक को उपासना पद्धति की पूर्ण स्वतंत्रता देते हुए भी भारतीय जनसंघ मजहब को राजनीति के साथ मिलाने अथवा सांप्रदायिक आधार पर विशेष अधिकारों की मांग करने की प्रवृत्ति का, जो राष्ट्रीय एकात्मता में बाधक है, विरोधी है और उसे किसी प्रकार का प्रश्रय नहीं दे सकता।

अल्पमतों के प्रति सहिष्णुता एवं पूर्ण भेदभावरहित व्यवहार राष्ट्रीयता और प्रजातंत्र के अनिवार्य अंग हैं। भारतीय जनसंघ सभी प्रकार के अल्पमतों को इस बात की आश्वस्ति देता है, किंतु मजहब या अन्य आधार पर भारतीय जन को बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक वर्गों में बांटना और उसे देश की राजनीतिक, सामाजिक अथवा आर्थिक नीतियों का आधार बनाना अतर्कसंगत तथा राष्ट्रीयता को शुद्ध परिकल्पना के अज्ञान का परिचायक है। राजनीतिक तथा प्रशासन में इस प्रकार की भ्रांत धारणाओं पर आधारित वर्गीकरण के लिए कोई स्थान नहीं है।

पाकिस्तान में रहनेवाली जनता मूलतः भारतीय राष्ट्र का अंग रही है। मुसलिम लीग द्वारा द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत के प्रतिपादन तथा पाकिस्तान द्वारा इस्लामी राज्य को घोषणा से वहां के गैर-मुसलिम जन विधानतः दूसरे दर्जे के नागरिक बना दिए गए हैं। अन्याय और उत्पीड़न का शिकार बनकर वे भारत आने को विवश हुए हैं। भारतीय राज्य का यह दायित्व है कि वह इन बंधुओं को पाकिस्तान में समान अधिकार तथा सुरक्षा और सम्मानपूर्वक जीवनयापन की सुविधाएं दिलाने के लिए प्रयत्न करे अथवा उन्हें योजनापूर्वक भारत लाने, उनका पुनर्वास करने तथा क्षतिपूर्ति देने की व्यवस्था करे।

जब तक पाकिस्तान का अस्तित्व भारत के प्रति शत्रुभावापन्न हुए एक पृथक् इस्लामी राज्य के रूप में विद्यमान है, तब तक भारत के मुसलमानों की स्थिति नाजुक है। शासन को इस बात का विशेष प्रयत्न करना होगा कि पाकिस्तानी प्रवृत्ति को जन्म देनेवाली ऐतिहासिक प्रक्रिया बदली जाए और ऐसे कोई कारण न रहें, जिससे पाकिस्तान भारत के इन नागरिकों की निष्ठा डिगाने में सफल हो सके।
भारत स्थित ईसाई एवं अन्य मतावलंबी मिशनों को विदेशी प्रभाव एवं नियंत्रण से मुक्त करना होगा, जिससे वे विदेशी शक्तियों के हाथों के खिलौने न बन सकें।

शासन व्यवस्था

एक देश, एक जन और एक संस्कृति के आधार पर एकात्मता के लिए पोषक और उसकी अभिव्यक्ति का सफल उपकरण एकात्म राज्य संविधान ही हो सकता है। संघात्मक संविधान की कल्पना राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधक है।

भारत की राज्य व्यवस्था तथा लोकजीवन के विकास में जनपदों का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। अतः वर्तमान प्रदेशों का ऐतिहासिक एवं लोक व्यवहार के आधार पर जनपदों में परिसीमन होना चाहिए। वहां निर्वाचित जनपद सभाओं को शासन के अधिकार हों। जनपदों के अंतर्गत जिले, विकासखंड तथा पंचायतें बनाई जाएं। संपूर्ण देश के लिए •विधान बनाने का अधिकार संसद को हो। जनपद सभाओं को अपनी क्षेत्रीय आवश्यकताओं के अनुसार उपविधियों के निर्माण का तथा विधान-विशेष के लिए संसद् को संस्तुति करने का अधिकार हो। संवैधानिक राज्यपालों के स्थान पर विभिन्न जनपदों के कार्यों को समन्वित करने के लिए प्रदेशीय अथवा क्षेत्रीय आधार पर प्रशासक युक्त हो।

विभिन्न निकायों के बीच शक्ति एवं साधन स्रोतों का इस प्रकार विभाजन किया जाए कि प्रत्येक आत्मनिर्भर होकर उत्तरदायी स्वायत्तता का उपभोग कर सके।

प्रशासन

प्रशासन राज्य का इतना महत्त्वपूर्ण अंग है कि सामान्य जन उसी को राज्य समझकर चलते हैं। प्रशासन का सुदक्ष, सक्षम, शुचितापूर्ण, जन-भावनाओं तथा जन-आवश्यकताओं के प्रति सहानुभूतिपूर्वक जागरूक, उत्तरदायी, अनुशासित, कर्तव्यदक्ष एवं आत्मसम्मानपूर्ण होना नितांत आवश्यक है। साथ ही भृत्यवर्ग में अपनी सेवाओं और परिलाभ के संबंध में नैश्चिंत्य रहना चाहिए तथा यह विश्वास होना चाहिए कि भर्ती और पदोन्नति में पक्षपात नहीं किया जाएगा। कुशलता के लिए प्रोत्साहन और पुरस्कार तथा चूक के लिए दंड होना चाहिए।

सामान्यत: केंद्रीय, प्रांतीय और स्थानीय शासन के कर्मचारियों के वेतन और परिलाभ की दरें समान होनी चाहिए।

राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक तीनों ही कारणों से प्रशासन में मितव्ययिता एक राष्ट्रीय कर्तव्य है

राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक तीनों ही कारणों से प्रशासन में मितव्ययिता एक राष्ट्रीय कर्तव्य है। सामान्य जन और प्रशासक वर्ग के जीवन स्तर में भारी अंतर असंतोष, भ्रष्टाचार, मुद्रास्फीति तथा सामाजिक विभेद पैदा करता है। इस अंतर को कम करना होगा। प्रत्युत सभी कर्मचारियों के मन में राष्ट्र निर्माण के महान् दायित्व से सहभागी होने का भाव जाग्रत होना चाहिए तथा वही उनके कर्म की मूल प्रेरणा होनी चाहिए।

सरकारी कर्मचारियों के राजनीति संबंधी प्रजातंत्रीय अधिकारों को मतदान छोड़कर समाप्त करने की परंपरा चली आ रही है। सार्वजनिक क्षेत्र के विस्तार के साथ शासकीय सेवाकर्मियों का भी विस्तार होता रहा है। समाज के इस लगातार बढ़ते हुए वर्ग को राजनीति के प्रति उदासीन बनाना प्रजातंत्र के स्वस्थ विकास की दृष्टि से अनुपयुक्त है।

अतः अधिकारी वर्ग, सामान्य प्रशासन और सेना तथा पुलिस जैसे विभागों के अतिरिक्त शेष कर्मचारियों को राजनीति में भाग लेने की सुविधा होनी चाहिए।

न्याय

न्याय सस्ता, सर्वजन सुलभ तथा अविलंबित होना चाहिए। भारत की न्याय व्यवस्था अंग्रेज़ी परंपरा का अनुसरण करके ही चल रही है। उसमें सुधार और परिवर्तन करना होगा।
न्यायपालिका को कार्यपालिका से सब स्तरों पर पृथक् तथा मुक्त रहना चाहिए। न्यायपालिका की स्वतंत्रता और प्रामाणिकता में बाधक प्रवृत्तियों और व्यवस्थाओं को समाप्त किया जाए।

(गतांक से…)

क्रमश: