राजनीति के हाशिये पर वंशवादी कांग्रेस

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राहुल गांधी अब कांग्रेस अध्यक्ष होंगे। इसमें न तो कोई आश्चर्य होने की बात है और न ही कांग्रेस के लिए इसका कोई विशेष महत्व है। यह सबको पता ही था कि वे सोनिया गांधी के उत्तराधिकारी हैं तथा कांग्रेस उपाध्यक्ष के रूप में वे पहले से ही पार्टी का नेतृत्व संभाल रहे थे। इसलिए यह एक तरह से पुराने नेतृत्व को ही जारी रखने का निर्णय है तथा यह केवल कागजी कार्रवाई भर है, जिसमें कुछ भी नया नहीं दिखता। राहुल गांधी द्वारा अपनी मां सोनिया गांधी का स्थान लेना इसी बात की ओर इशारा करता है कि आने वाले दिनों ने सोनिया–राहुल ही कांग्रेस का नेतृत्व करते रहेंगे। पिछले कुछ वर्षों से राहुल द्वारा अपनी मां से कांग्रेस की कमान लेने की बात कई बार चर्चा में आई, परंतु निरंतर हार के कारण कांग्रेस के हाथ उत्सव मनाने योग्य अवसर नहीं लगा। ‘उचित अवसर’ नहीं मिलने के कारण राहुल का अध्यक्ष बनना बार–बार टलता रहा। अंतत: कांग्रेस नेतृत्व ने इस औपचारिकता को हिमाचल एवं गुजरात के चुनाव परिणाम घोषित होने से पूर्व ही पूरा कर लेना ठीक समझा है। अब जबकि हिमाचल एवं गुजरात के आसन्न हार को देखते हुए फिर से मौका चुकने से बेहतर राहुल को अध्यक्ष पद पर काबिज कराने का निर्णय कांग्रेस ले चुकी है, ऐसे में पार्टी ने वंशवाद की जकड़ से संगठन को बचाने का एक और अवसर खो दिया है।

पिछले 19 वर्षों से सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष पद पर बनी रही। वे अब तक की सबसे लम्बे समय तक इस पद पर रहने वाली अध्यक्ष हैं, यहां तक कि इंदिरा गांधी एवं राजीव गांधी से भी कहीं लम्बे समय तक। कांग्रेस जिसमें हर वर्ष अध्यक्ष चुनने की परंपरा थी, अंतत: वंशवादी राजनीति की शिकार हो गई। सोनिया गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष का पद सीताराम केसरी को पद से हटाकर प्राप्त किया। सीताराम केसरी कांग्रेस में वंशवादी राजनीति की पुनर्स्थापना में बाधा बने हुए थे। कांग्रेस के लोग आज भी नरसिंह राव को वंशवादी राजनीति से उलट चलने के लिए माफ नहीं कर पाये तथा सीताराम केसरी को तो बाद में जबरन पद से हटाना पड़ा था। यही कारण है कि राहुल के पदारोहण को और अधिक टालना वंशवादी राजनीति के लिए घातक माना जा रहा था।
वंशवाद की जकड़ में कांग्रेस का जनाधार तेजी से कमजोर हुआ है, जिसके कारण देश की राजनीति में इसे मुंह की खानी पड़ रही है। परंतु सबसे बड़ी विडंबना यह है कि गोपाल कृष्ण गोखले, बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गांधी एवं सरदार पटेल जैसे दिग्गजों द्वारा पल्लवित–पोषित कांग्रेसी संस्कृति के विपरीत लोकतंत्र में वंशवाद को तर्कसंगत बताने में आज के कांग्रेसी सबसे आगे हैं। आज स्थिति यह हो गई है कि कांग्रेस वंशवाद से आगे कुछ भी देखने में असमर्थ है, जिससे यह संगठन अब एक ‘पारिवारिक संस्था’ में परिवर्तित हो चुका है। पार्टी पर लगातार वंशवादी नियंत्रण से इसका संगठन काफी कमजोर हो चुका है, फलत: यह चुनाव–दर–चुनाव हार का मुंह देखने को मजबूर है। अब यह मुख्यधारा की पार्टी से भारतीय राजनीति के हाशिये पर जाने की अपनी यात्रा पर निकल चुकी है।

कांग्रेस का भाग्य एक विशेष वंश की नियति से बंध चुका है तथा हर कांग्रेसी इसका असहनीय भार अपने कंधों पर महसूस करता है। जो इस स्थिति से कांग्रेस को उबारना भी चाहते हैं उन्हें पता है पार्टी में वंशवाद पर प्रश्न खड़े करना ईशनिन्दा की तरह है। जो पार्टी को बचाना चाहते हैं उन्हें भी पता है कि वंशवाद के चक्कर में संगठन की स्थिति जर्जर हो चुकी है और अब पुन: इसमें लोकतंत्र को स्थापित करना टेढ़ी खीर है। आज का युवा जो लोकतांत्रिक मूल्यों को अपना आदर्श मानता है, उनके लिए उन वंशवादी सिद्धांतों जिसमें स्वतंत्रता पूर्व के विशाल कांग्रेस को सत्ता केंद्रित चाटुकारों का समूह बना दिया है, उसको समर्थन देना कठिन होगा। कांग्रेस को अब तक समझ लेना चाहिए था कि उसकी निरंतर हार का मुख्य कारण वंशवादी राजनीति से चिपके रहने की उसकी ‘बालहठ’ ही है। इस ‘बालहठ’ से न तो कांग्रेस संगठन में नए प्राण फूंके जा सकते हैं, न ही इसकी नई ऊर्जा का संचार हो सकता है। अब जबकि कांग्रेस इस सच्चाई से मुंह मोड़े हुए हैं, इसका पुनरूत्थान अनिश्चित प्रतीत होता है।

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