जनादेश, मतदाता संदेश व राजनीतिक निहितार्थ

| Published on:

डॉ. विनय सहस्रबुद्धे 

जनादेश में हमेशा एक संदेश होता है और यह इस पर निर्भर करता है कि प्राप्तकर्ता इसे कैसे पढ़ता हैं। हाल के विधानसभा चुनावों के दौरान भी यह बात सही साबित हुई। भारत में चुनावी नतीजों ने हमेशा इस तथ्य को रेखांकित किया है कि निरंतरता और परिवर्तन हमेशा साथ-साथ चलते हैं और मौजूदा विभानसभा चुनाव भी इसमें कोई अपवाद नहीं है। मतदाताओं ने बदलाव की राजनीति पर जहां अपना भरोसा जताया, वहीं ठहराव की राजनीति के समर्थक लोगों की बदलाव की मांग काे ठुकरा दिया।

मतदाताओं की आवाज

मतदाताओं के स्पष्ट और जोरदार संदेश के चार पहलू हैं। सबसे पहले, उत्तर प्रदेश के परिणामों ने विशेष रूप से दिखाया है कि मतदाताओं ने जाति और समुदाय से ऊपर उठकर, कल्याणकारी और विकासात्मक राजनीति के पक्ष में मतदान किया है। वी.पी. सिंह के युग से शुरु होकर राजनीति सामाजिक गठजोड़ या सोशल इंजीनियरिंग से प्रभावित रही, लेकिन अब लोकतांत्रिक राजनीति को एक अलग स्तर पर ले जाया गया है और आकांक्षाओं के प्रभावी प्रबंधन ने सोशल इंजीनियरिंग की जगह ले ली है। जनता जाति और समुदाय के नाम पर वोट मांगने वाली पार्टियों की तुलना में जमीनी स्तर पर काम करने वाली पार्टी को पसंद कर रही है। उल्लेखनीय है कि राज्य में बहुजन समाज पार्टी का पतन इस बात का द्योतक है कि अनुसूचित जातियों ने समुदाय विशेष पर आधारित पार्टी के साथ जुड़ने से इनकार कर दिया है।

परिवारवाद के लिए कोई स्थान नहीं

दूसरा महत्वपूर्ण संदेश यह है कि परिवारवादी राजनीति के दिन अब समाप्त हो गए हैं। मतदाताओं ने एक के बाद एक परिवारवादी दलों को खारिज किया है, बादल परिवार से लेकर यादवों और बनर्जी तक, इस सबसे भी बढ़कर गांधी परिवार तक। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने प्रचार अभियान के दौरान मतदाताओं को परिवारवादी पार्टियों के बारे में आगाह किया था और ऐसा लगता है कि मतदाताओं ने

• मतदाताओं ने बदलाव की राजनीति पर जहां अपना भरोसा जताया, वहीं ठहराव की राजनीति के समर्थक लोगों की बदलाव की मांग काे ठुकरा दिया
• मतदाताओं ने जाति और समुदाय से ऊपर उठकर, कल्याणकारी और विकासात्मक राजनीति के पक्ष में मतदान किया है
• परिवारवादी राजनीति के दिन अब समाप्त हो गए हैं। मतदाताओं ने एक के बाद एक परिवारवादी दलों को खारिज किया है, बादल परिवार से लेकर यादवों और बनर्जी तक, इस सबसे भी बढ़कर गांधी परिवार तक

उनकी अपील को स्वीकार किया है। एक आकांक्षी लोकतंत्र में जनता अब महसूस करने लगी है कि परिवारवादी दलों के नेताओं का समर्थन करना जन्म-आधारित भेदभाव का समर्थन करने जैसा है, जिसे हमारे संविधान निर्माताओं ने भी खारिज कर दिया था। जिन पार्टियों में नेतृत्व केवल परिवारों का एकाधिकार है, उनका भविष्य गौरवशाली नहीं हो सकता और जितनी जल्दी परिवारवादी इस संदेश को स्वीकार करते हैं, उनके अस्तित्व के लिए यह उतना ही अच्छा होगा। हम उम्मीद करते हैं कि द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके), शिवसेना, राष्ट्रीय जनता दल (राजद), अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) जैसी पार्टियां इस संदेश पर गंभीरता से विचार करेंगी। हमें आम आदमी पार्टी (आप) को लेकर भी कोई संशय नहीं रखना चाहिए, हालांकि यह एक परिवारवादी पार्टी नहीं है, लेकिन इसे भी उसी तर्ज पर चलाया जा रहा है। बहरहाल, पंजाब में जीत भी एक पारंपरिक विकल्प को लेकर जनता की स्पष्ट अस्वीकृति है, जिसका नाता भी परिवारवादी पार्टी से रहा है।

प्रदर्शन पर जोर

तीसरा संदेश प्रदर्शन की राजनीति को लेकर है। जो पार्टियां इस बात को सुनिश्चित करने में सफल रही हैं कि उनकी सरकारें सत्ता में आने पर काम करती हैं, वह सत्ता विरोधी लहर को सत्ता समर्थक लहर में बदलने में कामयाब हुई हैं। भारतीय जनता पार्टी ने गुजरात में 2019, महाराष्ट्र में 2020, बिहार में 2020, असम में 2021 और अब उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा में इस बात को साबित किया है। इन सभी दौर के चुनावों में भाजपा की जीत केवल एक कमजोर विपक्ष के कारण नहीं हुई है। दरअसल, यूपी, गोवा, उत्तराखंड या इससे पहले गुजरात या महाराष्ट्र में विपक्ष को बिल्कुल भी कमजोर नहीं कहा जा सकता। और फिर भी, अगर लोगों ने इन चुनावों में स्पष्ट रूप से भाजपा को समर्थन दिया है, तो यह सत्ता समर्थक होने का स्पष्ट संकेत है। मजे की बात यह है कि सत्ता विरोधी लहर एक तरह की यथास्थिति का नियम बन गई थी; अब, यह नियम स्पष्ट रूप से बदला हुआ है। यह बात भी स्पष्ट है कि अधिकांश राज्यों में भाजपा ने अपने मत-प्रतिशत में वृद्धि की है। इस बात को रेखांकित करते हुए प्रधानमंत्री ने इस जीत को ‘भाजपा के गरीब समर्थक, सक्रिय शासन’ के रूप में वर्णित किया है।

नेतृत्व की महत्ता

अंत में, 2022 के नतीजे इस बात को रेखांकित करते हैं कि राष्ट्रीय नेतृत्व हमेशा मायने रखता है, चाहे कोई राज्य कितना भी छोटा या बड़ा क्यों न हो। अतीत में कई बार राजनीतिक पंडितों ने कहा है कि राष्ट्रीय चुनावों के नतीजे राज्य की राजनीति से प्रभावित होते हैं। आज, 2022 के नतीजे हमें याद दिलाते हैं कि राज्य के नतीजे भी राष्ट्रीय आकांक्षाओं से प्रभावित होते हैं। ये चुनाव कोविड-19 महामारी की छाया में हुए। इसके अलावा, जब मतदान का दौर वास्तव में शुरू हुआ, तो यूक्रेन संकट भी खबरों में स्थान पा रहा था, क्योंकि वहां हजारों भारतीय छात्र फंसे हुए थे। चाहे वह कोरोना वायरस महामारी हो या यूक्रेन में फंसे भारतीय, सरकार ने इन चुनौतियों का जिस तरह से सामना किया, उसे देश भर की जनता ने सकारात्मक तौर पर लिया है। यह इस बात का भी द्योतक है कि पूरे भारत में लोग मानते हैं कि देश को कई और वर्षों तक प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व की जरूरत है। इन राज्य के फैसले इस भावना को दर्शाते हैं।

ये चुनाव परिणाम लोकतंत्र के लिए भी महत्वपूर्ण हैं। जैसाकि लोकतंत्र को लेकर ‘संतुष्टि’ पर प्यू रिसर्च सेंटर की नवीनतम सर्वेक्षण रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है, ‘वैश्विक महामारी ने कथित राजनीतिक और सामाजिक विभाजन को बढ़ाया है। 2021 में हमने जिन 17 उन्नत अर्थव्यवस्थाओं का सर्वेक्षण किया, उनमें 61 प्रतिशत का कहना है कि उनका देश महामारी के प्रकोप से पहले की तुलना में अधिक विभाजित हुआ है। वहीं, भारत के परिपेक्ष्य में देखा जाए तो कोविड-19 की तीन लहरों के बाद संपन्न हुए चुनावों में विभिन्न क्षेत्रों और दूर-दराज में रहने वाली जनता ने एक तरफा मतदान किया है। इस बात से स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री राज्यों, जातियों और समुदायों के बीच एक उत्कृष्ट एकीकृतकर्ता के रूप में उभरे हैं। कार्यान्वयन की कला में महारत हासिल करने के बाद, उन्होंने स्थापित किया है कि उदार लोकतंत्र कुशल राज्य निर्माण के साथ चल सकता है। 2022 के नतीजों का श्रेय प्रधानमंत्री को दिया जा रहा है क्योंकि वह भाजपा के मजबूत संगठन और विचारधारा को लेकर चलते हैं।

  (लेखक आईसीसीआर के अध्यक्ष व राज्य सभा हैं)